आज का विश्व एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है जहाँ आतंकवाद, धर्म और पूंजीवाद के गठजोड़ ने मानव सभ्यता के मूल्यों को गहराई से झकझोर दिया है।
हम जिस दौर में जी रहे हैं, वहाँ हिंसा को धर्म का जामा पहनाकर परोसा जा रहा है, और धर्म के नाम पर की जाने वाली हरकतों के पीछे सत्ता और पूंजी का खेल बड़ी चतुराई से छिपा होता है।
धर्म — जो मूलतः मानवता, करुणा और नैतिकता का संवाहक है — आज सत्ता की सबसे बड़ी ढाल और पूंजीवाद का सबसे सस्ता उपकरण बन गया है।
धर्म की आड़ में सत्ता का स्वार्थ
दुनिया में जब भी कोई आतंकी हमला होता है, उसका सीधा संबंध किसी न किसी धर्म से जोड़ दिया जाता है।
मीडिया, सरकारें और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियाँ यह नैरेटिव गढ़ती हैं कि फलां आतंकवादी "मुसलमान था", या "हिंदू चरमपंथी था"। लेकिन क्या वास्तव में कोई धर्म किसी हिंसा का समर्थन करता है?
इस्लाम, हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म, सिख धर्म या ईसाई धर्म — कोई भी धर्म आतंकवाद को नहीं सिखाता।
असल में, आतंकवाद एक राजनीतिक परियोजना है जिसे सत्ता, साम्राज्यवाद और पूंजी के गठजोड़ ने रचा है।
पाकिस्तान का प्रधानमंत्री इस्लाम का रक्षक नहीं है, वह सत्ता और पूंजी का सेवक है।
भारत का प्रधानमंत्री हिंदू धर्म का प्रतिनिधि नहीं है, बल्कि वह भी उसी राजनीतिक व्यवस्था का हिस्सा है जो जनहित की आड़ में निजी हितों की रक्षा करती है।
राज्य और धर्म : एक अस्वस्थ गठबंधन
हम भूल जाते हैं कि राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए।
राज्य की भूमिका नागरिकों के जीवन को बेहतर बनाने की होनी चाहिए — शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में।
लेकिन जब कोई सरकार खुद को किसी धर्म का संरक्षक घोषित कर देती है, तो वह लोकतंत्र से तानाशाही की ओर कदम बढ़ा देती है।
धार्मिक प्रतीकों, नारों और परंपराओं का उपयोग जनमानस को भावनात्मक रूप से नियंत्रित करने के लिए किया जाता है।
वहीं, पर्दे के पीछे — सरकारें कारपोरेट्स को प्राकृतिक संसाधनों, ज़मीन, खनिज और सार्वजनिक संपत्ति को सौंपती जाती हैं।
पूंजीवाद : सत्ता का असली नियंता
पूंजीपति वर्ग न तो किसी ईश्वर का वरदान हैं, न ही वे परिश्रम के देवता।
वे व्यवस्था के loopholes का लाभ उठाकर, गरीबों की मेहनत का शोषण कर, और राज्यसत्ता से साँठगाँठ करके अमीर बनते हैं।
पूंजीवाद का मूल सिद्धांत है — अधिकतम लाभ, न्यूनतम लागत।
इसमें मानवता, नैतिकता या पर्यावरण का कोई स्थान नहीं होता।
जब कोई गरीब किसान आत्महत्या करता है, कोई मज़दूर भूखा मरता है या कोई युवा बेरोज़गारी से तंग आकर आत्महत्या कर लेता है — तो यह पूंजीवादी व्यवस्था की विफलता है।
लेकिन इन मुद्दों पर जनता का ध्यान न जाए, इसके लिए मीडिया, फिल्में और धार्मिक संस्थाएं राष्ट्रवाद और धर्म के रसायन से जनता की चेतना को कुंद कर देती हैं।
आतंकवाद : एक रणनीतिक आयोजन
आतंकवाद एक स्वतःस्फूर्त या धार्मिक उन्माद नहीं है — यह एक राजनीतिक और सामरिक रणनीति है।
भारत में जब संसद पर हमला होता है, या पाकिस्तान में जब किसी स्कूल में बच्चों की हत्या कर दी जाती है — तो ये घटनाएँ न केवल आम जनता को भयभीत करती हैं, बल्कि राज्यसत्ता को और अधिक दमनकारी नीतियाँ लागू करने का मौका देती हैं।
सुरक्षा एजेंसियाँ जनता की जासूसी शुरू करती हैं, बजट से शिक्षा और स्वास्थ्य की धनराशि कम करके सैन्य खर्च बढ़ा दिया जाता है।
युद्धोन्माद फैलाया जाता है, और देशभक्ति के नाम पर आलोचना करने वालों को 'देशद्रोही' करार दे दिया जाता है।
इस पूरे खेल में सबसे अधिक लाभ कौन उठाता है?
सत्ता में बैठे राजनेता और उन्हें चंदा देने वाले पूंजीपति।
दोनों ओर एक ही तस्वीर
भारतीय और पाकिस्तानी आम नागरिकों की पीड़ा एक जैसी है।
दोनों जगह आम आदमी महँगाई, बेरोज़गारी, घटिया स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा की बदहाली से जूझ रहा है।
लेकिन राष्ट्रवाद की अफीम इतनी गहरी है कि वे अपने-अपने देशों की सरकारों की असल साजिश को समझ नहीं पाते।
उनका गुस्सा पड़ोसी देश की जनता पर निकलता है, जो दरअसल खुद भी शोषित है।
साझा संघर्ष ही समाधान है
हमें यह समझना होगा कि हमारी असली लड़ाई पाकिस्तान, चीन, अमेरिका या किसी और देश से नहीं है।
हमारी असली जंग है — गरीबी, बेरोज़गारी, जातिवाद, सांप्रदायिकता, लैंगिक भेदभाव और आर्थिक विषमता से।
हमें उस वर्गीय चेतना की ओर लौटना होगा जहाँ मज़दूर, किसान, छात्र, शिक्षक, आदिवासी और महिलाएँ मिलकर एक साझा मोर्चा बनाएं।
यह संघर्ष न हिंसा से जीता जा सकता है, न नफरत से —
बल्कि सचेत नागरिकता, शिक्षा, विवेक और संगठित सामाजिक आंदोलनों के माध्यम से ही एक न्यायपूर्ण समाज की रचना संभव है।
दक्षिण एशिया : संघर्षों से समृद्धि की ओर
भारत, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, भूटान, म्यांमार और अफगानिस्तान — ये सभी देश इतिहास, संस्कृति, भाषा और समस्याओं में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।
कल्पना कीजिए — यदि इन देशों के युवा धर्म और नफरत के झूठे पर्दे को चीर दें और मिलकर सामाजिक न्याय, शिक्षा और समानता के लिए लड़ें —
तो यह क्षेत्र भी यूरोप की तरह शांति और समृद्धि का केंद्र बन सकता है।
आशा का एक दीपक
इस लेख के माध्यम से मैं केवल आलोचना नहीं कर रहा, बल्कि उस उम्मीद को भी साझा कर रहा हूँ जो मेरे भीतर निरंतर जलती रहती है।
मैं आज भी विश्वास करता हूँ कि —
“सच को चाहे जितना दबाया जाए, एक दिन वह फूट पड़ेगा।”
मैं और मेरे जैसे कई लोग अपने-अपने स्तर पर इस विचारधारा को आगे बढ़ा रहे हैं।
लेकिन इस बदलाव के लिए हमें और आवाज़ों की ज़रूरत है —
ऐसी आवाज़ें जो न डरे, न बिके, न झुके —
बल्कि जनता के साथ खड़ी रहें।
अंततः : एक नए सवेरा की प्रतीक्षा
हम चुन सकते हैं कि हम किनके साथ खड़े होंगे — सत्ता और पूंजी के, या जन और न्याय के।