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EVM का विवाद और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

भारत में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) का उपयोग 1982 में पहली बार किया गया था, लेकिन यह 2004 के आम चुनावों से व्यापक रूप से उपयोग में आई। तब से लेकर अब तक, ईवीएम ने भारतीय लोकतंत्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हालांकि, पिछले 11 वर्षों से ईवीएम का विरोध विभिन्न सामाजिक संगठनों और राजनीतिक दलों द्वारा किया जा रहा है।

ईवीएम के खिलाफ यह असंतोष तब और बढ़ा जब आरटीआई के जरिए यह पता चला कि चुनाव आयोग और ईवीएम आपूर्ति करने वाली कंपनियों के आंकड़ों में भारी असमानता है। चुनाव आयोग के अनुसार, बेंगलुरु स्थित भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (BEL) और हैदराबाद स्थित इलेक्ट्रॉनिक्स कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (ECIL) से खरीदी गई ईवीएम की संख्या में लगभग 19 लाख का अंतर है। यह स्थिति यह सवाल खड़ा करती है कि ये अतिरिक्त मशीनें आखिर कहां गईं?


आरटीआई से मिले आंकड़ों के अनुसार, BEL ने 19.69 लाख ईवीएम की आपूर्ति की, जबकि चुनाव आयोग को केवल 10.05 लाख मशीनें प्राप्त हुईं। इसी प्रकार, ECIL ने 19.44 लाख मशीनें आपूर्ति की, लेकिन चुनाव आयोग ने कहा कि उन्हें केवल 10.14 लाख मशीनें मिलीं। यह अंतर न केवल संख्याओं में है बल्कि ईवीएम की लागत और उनके नष्ट किए जाने के तरीके को लेकर भी सवाल खड़े करता है।

भाग 2: ईवीएम पर छेड़छाड़ और अन्य विवाद

ईवीएम की प्रामाणिकता और निष्पक्षता पर कई बार सवाल उठे हैं। सबसे प्रमुख विवाद 2019 के लोकसभा चुनावों के समय सामने आया, जब अमेरिका के एक साइबर विशेषज्ञ ने दावा किया कि ईवीएम को हैक किया जा सकता है। इस विशेषज्ञ ने लंदन में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान यह भी कहा कि 2014 के चुनावों में ईवीएम का दुरुपयोग हुआ था। हालांकि, इस दावे के समर्थन में कोई ठोस सबूत नहीं प्रस्तुत किया गया।

इतना ही नहीं, भाजपा ने भी विपक्ष में रहते हुए ईवीएम पर सवाल उठाए थे। 2009 में, लालकृष्ण आडवाणी ने मांग की थी कि ईवीएम की जगह मतपत्रों का उपयोग किया जाए। उनका कहना था कि जब तक यह सुनिश्चित नहीं हो जाता कि ईवीएम पूरी तरह से सुरक्षित हैं, तब तक इनका उपयोग बंद होना चाहिए। लेकिन भाजपा के सत्ता में आने के बाद, यह विवाद उलट गया और विपक्ष ने ईवीएम पर भाजपा द्वारा छेड़छाड़ का आरोप लगाया।

2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 403 में से 325 सीटें जीतीं। इस नतीजे के बाद मायावती, अखिलेश यादव और अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं ने ईवीएम की प्रामाणिकता पर सवाल उठाए। अरविंद केजरीवाल ने तो यहां तक दावा किया कि ईवीएम को मात्र 90 सेकंड में हैक किया जा सकता है। दिल्ली विधानसभा में उन्होंने यह प्रदर्शन भी किया।


भाग 3: भविष्य की राह और समाधान

ईवीएम के खिलाफ देशभर में चल रहे आंदोलनों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि लोगों का एक बड़ा वर्ग इन्हें लेकर सशंकित है। चुनाव आयोग और सरकार की चुप्पी इस मुद्दे को और भी विवादास्पद बनाती है। कई सामाजिक संगठनों और राजनीतिक दलों ने चुनावों में ईवीएम के उपयोग का बहिष्कार करने की मांग की है। उनका तर्क है कि जब तक मतपत्र प्रणाली को पुनः लागू नहीं किया जाता, तब तक चुनावों में भाग नहीं लेना चाहिए।

सामाजिक संगठनों का यह भी कहना है कि चुनाव आयोग को पुराने और खराब ईवीएम को नष्ट करने के लिए एक पारदर्शी नीति बनानी चाहिए। 2017 में चुनाव आयोग ने दावा किया कि उन्होंने कोई भी ईवीएम रद्दी में नहीं बेचा है। लेकिन यह बयान यह नहीं स्पष्ट करता कि 1989-1990 से लेकर अब तक की खराब मशीनों का क्या हुआ।

विभिन्न न्यायालयों में ईवीएम के खिलाफ याचिकाएं दायर की गई हैं, लेकिन अब तक कोई ठोस समाधान सामने नहीं आया है।

निष्कर्ष:

ईवीएम पर विवाद केवल एक तकनीकी समस्या नहीं है, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र के विश्वास और पारदर्शिता से जुड़ा एक गंभीर मुद्दा है। राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों को चाहिए कि वे ईवीएम के खिलाफ एकजुट होकर आंदोलन करें और सरकार पर मतपत्र प्रणाली को दोबारा लागू करने के लिए दबाव बनाएं। जब तक यह नहीं होता, तब तक चुनावों का बहिष्कार एकमात्र समाधान हो सकता है।

भारतीय लोकतंत्र की मजबूती के लिए यह आवश्यक है कि चुनाव प्रणाली पर जनता का भरोसा बना रहे। यह तभी संभव है जब चुनाव निष्पक्ष, पारदर्शी और विवाद-मुक्त हों।

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