Editorial article: Ziaus Sahar Razzaqi (Z.S.RAZZAQI) Senior Journalist
मोहनदास करमचंद गांधी, जिन्हें दुनिया भर में महात्मा गांधी और बापू के नाम से जाना जाता है, आधुनिक इतिहास की उन विलक्षण विभूतियों में से हैं जिन्होंने न केवल भारत की आज़ादी की राह को दिशा दी बल्कि विश्व राजनीति, समाज और आध्यात्मिकता पर भी अमिट छाप छोड़ी।
2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर में जन्मे गांधी का जीवन सत्य, अहिंसा और आत्मबलिदान का अद्भुत उदाहरण है। वे एक साथ राजनीतिज्ञ, वकील, दार्शनिक, पत्रकार, चिंतक और सबसे बढ़कर—जनसेवक थे।
गांधी का दर्शन सत्याग्रह (Satya + Agraha यानी सत्य पर आग्रह) था, जो अहिंसा के सिद्धांत पर आधारित था। यही सिद्धांत आगे चलकर भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का आधार बना और विश्वभर में नागरिक अधिकार आंदोलनों को प्रेरणा देता रहा।
प्रारम्भिक जीवन और परिवार का प्रभाव
गांधी का जन्म एक धार्मिक और परंपराओं से जुड़ी वैश्य परिवार में हुआ था। उनके पिता करमचंद गांधी पोरबंदर रियासत के दीवान थे और माता पुतलीबाई गहरी धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। बचपन में ही मोहनदास पर जैन परंपरा, वैष्णव भक्ति और माता की आस्थाओं का गहरा असर पड़ा। यही संस्कार आगे चलकर उन्हें शाकाहार, उपवास, आत्मशुद्धि और सहिष्णुता के मार्ग पर ले गए।
गांधी बचपन से साधारण विद्यार्थी रहे, परंतु उनमें गहरी जिज्ञासा और आत्मअनुशासन की प्रवृत्ति थी। वे अक्सर आत्मचिंतन में लीन रहते और नैतिकता के प्रश्नों को गंभीरता से लेते।
किशोरावस्था और विवाह
सिर्फ 13 वर्ष की आयु में, उस दौर की सामाजिक परंपरा के अनुसार, गांधी का विवाह 14 वर्षीय कस्तूरबा मकनजी से हुआ।
कस्तूरबा (जिन्हें बाद में सभी “बा” कहकर पुकारते थे) जीवनभर गांधी की सहधर्मिणी और संघर्ष की साथी रहीं। हालांकि यह बाल विवाह उनकी अपनी इच्छा से नहीं बल्कि परिवार की परंपरा के अनुसार हुआ था।
प्रारंभिक वैवाहिक जीवन में गांधी ने व्यक्तिगत संघर्षों और भावनात्मक उलझनों का अनुभव किया। उनकी पहली संतान अल्पायु में ही चल बसी। पिता के निधन ने भी इस दौर को और कठिन बना दिया। इसके बाद गांधी और कस्तूरबा के चार पुत्र हुए—हरिलाल, मणिलाल, रामदास और देवदास।
शिक्षा और इंग्लैंड का सफर
मैट्रिक परीक्षा के बाद गांधी ने भावनगर के शामलदास कॉलेज में दाखिला लिया, लेकिन परिवार की इच्छा थी कि वे बैरिस्टर बनें।
1888 में, केवल 18 वर्ष की आयु में, वे इंग्लैंड के लिए रवाना हुए।
विदेश यात्रा से पहले उन्होंने अपनी माता को यह वचन दिया था कि वे मांस, शराब और असंयम से दूर रहेंगे।
लंदन में रहते हुए उन्होंने न सिर्फ कानून की पढ़ाई की, बल्कि जीवन-दर्शन की नई समझ भी विकसित की। उन्होंने शाकाहारी समाज से जुड़कर गहरी बौद्धिक बहसों में भाग लिया और भगवद्गीता सहित अनेक धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया।
यहां गांधी का दृष्टिकोण व्यापक हुआ—उन्होंने ईसाई, बौद्ध, इस्लाम और अन्य धर्मों की गहराई से पड़ताल की।
भारत वापसी और प्रारंभिक असफलताएँ
1891 में गांधी बैरिस्टर बनकर भारत लौटे। लेकिन बंबई में वकालत शुरू करने पर उन्हें खास सफलता नहीं मिली।
उनकी शर्मीली प्रवृत्ति और कानूनी पेशे की कठिन प्रतिस्पर्धा ने उन्हें हतोत्साहित किया। उन्होंने राजकोट में मुकदमे लिखने का छोटा काम शुरू किया, परंतु वह भी अधिक दिनों तक नहीं चला।
ऐसे में उनके जीवन ने नया मोड़ लिया—जब उन्हें 1893 में एक वर्ष के लिए दक्षिण अफ्रीका की एक भारतीय फर्म का कानूनी काम संभालने का अवसर मिला। यह अवसर उनके जीवन की दिशा बदलने वाला साबित हुआ।
दक्षिण अफ्रीका: अपमान से जागरण तक
दक्षिण अफ्रीका पहुंचने के बाद गांधी ने नस्लीय भेदभाव का प्रत्यक्ष अनुभव किया।
प्रथम श्रेणी का वैध टिकट होने के बावजूद उन्हें ट्रेन से जबरन बाहर फेंक दिया गया। अदालत में उनसे पगड़ी उतारने की मांग की गई। होटलों में प्रवेश से वंचित किया गया।
इन अपमानजनक अनुभवों ने उनके भीतर अन्याय के खिलाफ आग जलाई और सामाजिक सक्रियता का बीज बो दिया।
गांधी ने समझा कि यह व्यक्तिगत अपमान नहीं, बल्कि एक समुदाय का अपमान है। उन्होंने भारतीय प्रवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष करने का निश्चय किया।
ज़ुलु युद्ध (1906) और सेवा भावना
1906 में ज़ुलु विद्रोह के दौरान गांधी ने भारतीयों को ब्रिटिश सेना की मदद के लिए प्रेरित किया।
हालांकि भारतीयों को सेना में शामिल नहीं किया गया, लेकिन उन्हें घायल सैनिकों की सेवा का अवसर दिया गया। गांधी ने स्वयं एक एंबुलेंस कोर का नेतृत्व किया और यह सिद्ध किया कि सेवा और त्याग किसी भी संघर्ष का उच्चतम रूप हो सकता है।
यही वह दौर था जब गांधी ने सत्याग्रह का बीज बोया—अन्याय का विरोध अहिंसा और सत्य की शक्ति से करने का विचार।
यानी संघर्ष तलवार से नहीं, बल्कि आत्मबल और धैर्य से जीता जाएगा।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए संघर्ष (1916–1945)
दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद और अन्याय के विरुद्ध लंबा संघर्ष करने के बाद मोहनदास करमचंद गांधी 1915 में भारत लौटे। इस समय भारतीय राजनीति का नेतृत्व गोपालकृष्ण गोखले जैसे उदारवादी नेताओं के हाथ में था, जो सुधारों और संवैधानिक तरीकों से आज़ादी की राह तलाश रहे थे।
गांधीजी ने प्रारंभिक वर्षों में कांग्रेस के अधिवेशनों में भाग लिया और अपने विचार रखे, लेकिन वे तत्काल किसी बड़े आंदोलन की अगुवाई में सामने नहीं आए।
उनके लिए यह समय भारत की ज़मीनी परिस्थितियों, गांवों की दयनीय स्थिति और जनता की पीड़ा को समझने का था। दक्षिण अफ्रीका में जो प्रयोग उन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह के साथ किए थे, अब वे भारत की धरती पर उन्हें परखना चाहते थे।
चंपारण और खेड़ा सत्याग्रह
1917-18 के दौरान गांधीजी का पहला बड़ा सार्वजनिक संघर्ष सामने आया। बिहार का चंपारण और गुजरात का खेड़ा क्षेत्र अंग्रेजों और जमींदारों की शोषणकारी नीतियों से त्रस्त था। चंपारण में किसानों को ‘टिनकठिया’ व्यवस्था के तहत जबरन नील की खेती करनी पड़ती थी, जिससे न तो उन्हें पर्याप्त अनाज मिलता था और न ही जीवनयापन के लिए उचित आमदनी। इसके अतिरिक्त, अकाल और महामारी ने उनकी दुर्दशा को और गहरा दिया। गांधीजी ने गांव-गांव जाकर किसानों की स्थिति का अध्ययन किया और उन्हें संगठित किया।
जब ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें क्षेत्र छोड़ने का आदेश दिया, तो हजारों लोग उनके समर्थन में खड़े हो गए। यह गांधीजी की उस पहली परीक्षा थी, जिसने उन्हें आम जनता का नेता बना दिया। अंततः अंग्रेजों को किसानों को राहत देनी पड़ी और शोषणकारी व्यवस्था में आंशिक सुधार करना पड़ा। इसी प्रकार, गुजरात के खेड़ा में अकाल की स्थिति में करों की वसूली हो रही थी। गांधीजी, सरदार पटेल और अन्य नेताओं के नेतृत्व में किसानों ने कर न देने का निश्चय किया। सरकार ने दमन किया, लेकिन अंततः कर में छूट और कैदियों की रिहाई करनी पड़ी। इन आंदोलनों ने गांधी को राष्ट्रीय पहचान दिलाई और उन्हें “बापू” और “महात्मा” कहकर पुकारा जाने लगा।
असहयोग आंदोलन और राष्ट्रीय जागरण
1919 का साल भारत के इतिहास में निर्णायक सिद्ध हुआ। जलियांवाला बाग नरसंहार ने पूरे देश को हिला दिया। अंग्रेजों की क्रूरता ने स्पष्ट कर दिया कि सुधारों और याचिकाओं से आज़ादी नहीं मिलने वाली। गांधीजी ने अहिंसक असहयोग की राह चुनी। 1920 में कांग्रेस ने उनके नेतृत्व में असहयोग आंदोलन आरंभ किया। इस आंदोलन ने अभूतपूर्व जनसहभागिता पैदा की—लोगों ने सरकारी नौकरी छोड़ी, अदालतों का बहिष्कार किया, विदेशी वस्त्र जलाए और खादी अपनाई।
महिलाओं, किसानों, छात्रों और व्यापारियों तक यह आंदोलन पहुंचा। यह पहली बार था जब भारत का स्वतंत्रता संग्राम एक व्यापक जनआंदोलन बन गया। किंतु 1922 में चौरी-चौरा की हिंसक घटना के बाद गांधीजी ने आंदोलन वापस ले लिया, क्योंकि वे मानते थे कि स्वतंत्रता की राह केवल अहिंसा से ही प्रशस्त हो सकती है। आंदोलन भले अधूरा रह गया, लेकिन इससे जनता में आत्मविश्वास जगा और अंग्रेजों को एहसास हुआ कि भारत अब चुपचाप दासता स्वीकार नहीं करेगा।
नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा
1920 के दशक के अंत तक भारतीय राजनीति में फिर नई ऊर्जा का संचार हुआ। 1929 में कांग्रेस ने लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पारित किया और 26 जनवरी 1930 को स्वतंत्रता दिवस मनाया। इसके बाद गांधीजी ने नमक कानून तोड़ने का निश्चय किया। 12 मार्च 1930 को उन्होंने अहमदाबाद से दांडी तक 400 किलोमीटर की पदयात्रा शुरू की। हजारों लोग इस ऐतिहासिक नमक मार्च में शामिल हुए। गांधीजी ने समुद्र तट पर नमक बनाकर ब्रिटिश कानून की धज्जियां उड़ाईं।
यह आंदोलन इतना व्यापक था कि 80,000 से अधिक लोग जेल भेज दिए गए। ब्रिटिश सरकार को गांधी-इरविन समझौता करना पड़ा और गांधीजी को गोलमेज सम्मेलन में आमंत्रित किया गया। यद्यपि सम्मेलन से ठोस परिणाम नहीं निकले, लेकिन इस आंदोलन ने दुनिया को भारत की स्वतंत्रता की मांग और गांधी की अहिंसक लड़ाई की ताकत दिखा दी।
दलित आंदोलन और सामाजिक सुधार
गांधीजी केवल राजनीतिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं थे। वे सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध भी संघर्षरत थे। 1932 में जब डॉ. भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में दलितों को पृथक निर्वाचन देने की घोषणा हुई, तो गांधीजी ने इसका विरोध करते हुए पुणे जेल में अनशन किया।
अंततः ‘पूना पैक्ट’ हुआ, जिसमें दलितों के लिए आरक्षित सीटों का प्रावधान किया गया। गांधीजी ने दलितों को “हरिजन” कहकर संबोधित किया और उनके मंदिर प्रवेश, शिक्षा और सम्मान के लिए आंदोलन चलाए। यद्यपि डॉ. अंबेडकर और गांधीजी के विचारों में मतभेद रहे, लेकिन दोनों ने दलितों की स्थिति सुधारने में ऐतिहासिक योगदान दिया। 1933 में उन्होंने हरिजन आंदोलन के समर्थन में 21 दिन का उपवास किया।
द्वितीय विश्व युद्ध और भारत छोड़ो आंदोलन
1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ और अंग्रेजों ने बिना भारतीयों की सहमति के भारत को युद्ध में झोंक दिया। कांग्रेस ने इसका विरोध किया और सामूहिक इस्तीफा दे दिया। गांधीजी ने 1942 में “भारत छोड़ो आंदोलन” का आह्वान किया। उनका नारा था—“करो या मरो।” इस आंदोलन ने पूरे भारत को आंदोलित कर दिया। जगह-जगह हिंसा, धरने, रेल पटरियां उखाड़ने और हड़तालें हुईं।
अंग्रेजों ने दमनचक्र चलाया, हजारों लोग मारे गए और लाखों जेल में डाले गए। गांधीजी, नेहरू, पटेल समेत सभी बड़े नेता कैद कर लिए गए। इसी दौरान गांधीजी ने व्यक्तिगत दुख भी झेले—उनकी पत्नी कस्तूरबा जेल में ही चल बसीं और वे स्वयं गंभीर रूप से बीमार पड़ गए। लेकिन आंदोलन ने अंग्रेजों को यह संदेश दे दिया कि अब भारत को स्वतंत्र किए बिना ब्रिटिश राज टिक नहीं सकता।
आंदोलन की ऐतिहासिक विरासत
1916 से 1945 तक का यह लंबा कालखंड भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का स्वर्णिम अध्याय था। चंपारण से लेकर भारत छोड़ो तक, गांधीजी ने बार-बार जनता को संगठित किया, अहिंसा का पाठ पढ़ाया और सत्याग्रह को स्वतंत्रता का सबसे बड़ा हथियार बनाया।
उन्होंने सिद्ध किया कि स्वतंत्रता केवल राजनीतिक मांग नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक क्रांति भी है। इस काल में कांग्रेस एक जनांदोलनकारी संगठन बनी, महिलाओं की भागीदारी बढ़ी, किसानों और मजदूरों में चेतना आई और भारत एक नए युग की ओर बढ़ा। 1945 तक स्थिति यह हो गई कि ब्रिटेन को सत्ता हस्तांतरण की राह देखनी पड़ी। गांधीजी के आंदोलनों ने भारत की आत्मा को जगा दिया और स्वतंत्रता का सपना साकार करने की राह प्रशस्त की।
स्वतंत्रता और भारत का विभाजन
सन् 1946 में जब ब्रिटिश सरकार ने भारत के भविष्य के लिए कैबिनेट मिशन योजना (British Cabinet Mission Plan) प्रस्तुत की, तब कांग्रेस और मुस्लिम लीग के सामने यह एक निर्णायक क्षण था। इस योजना में प्रांतों को तीन बड़े समूहों में बाँटने का सुझाव दिया गया था, जिनमें से एक समूह मुस्लिम बहुल प्रांतों का होना था। गांधी जी ने इस प्रस्ताव को “विभाजन की पूर्व भूमिका” माना और कांग्रेस को इसे स्वीकार न करने की सलाह दी। उनका गहरा संदेह था कि यदि इस प्रकार का समूह बनता है, तो वह आगे चलकर पाकिस्तान की मांग को वैधता देगा और भारत के भीतर स्थायी बंटवारे का आधार तैयार करेगा।
लेकिन कांग्रेस के भीतर यह मामला सरल नहीं था। पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे नेताओं का मानना था कि यदि कांग्रेस इस योजना को ठुकरा देगी, तो सत्ता का हस्तांतरण मुस्लिम लीग के हाथों में चला जाएगा। ऐसे में देश की एकता और प्रशासनिक नियंत्रण दोनों खतरे में पड़ सकते थे। परिणामस्वरूप, कांग्रेस नेतृत्व ने राजनीतिक दबाव के तहत इस योजना के कुछ हिस्सों पर विचार किया, भले ही गांधी जी इसके सख्त खिलाफ़ थे। यह कांग्रेस और गांधी जी के बीच मतभेदों की एक बड़ी घटना बनी, हालांकि स्वयं गांधी जी ने कभी अपने नेतृत्व को कांग्रेस पर थोपने की कोशिश नहीं की।
1946 से 1948 के बीच स्थिति बेहद भयावह हो गई। साम्प्रदायिक दंगों और हिंसा में लगभग पाँच हज़ार से अधिक लोग मारे गए, और लाखों लोग विस्थापित हुए। गांधी जी किसी भी ऐसी योजना के घोर विरोधी थे, जो भारत को स्थायी रूप से दो हिस्सों में बाँट दे। उनके अनुसार, हिंदू, मुस्लिम और सिख सहस्राब्दियों से एक साथ रहते आए हैं और उनका भविष्य भी मिलकर ही सुरक्षित है। लेकिन उस समय के सामाजिक-राजनीतिक हालात ने विभाजन की ओर धकेल दिया।
दूसरी ओर, मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की मांग को और तेज़ कर दिया। पश्चिमी पंजाब, सिंध, उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत और पूर्वी बंगाल में उन्हें भारी समर्थन मिला। ऐसे में कांग्रेस नेताओं के पास यह विकल्प रह गया कि या तो विभाजन स्वीकार कर लें और हिंसा को किसी हद तक रोकने की कोशिश करें, या फिर पूरे देश को गृहयुद्ध की आग में धकेल दें। कांग्रेस ने अंततः विभाजन की योजना को मंजूरी दी, भले ही वह गांधी जी की मूल सोच और सिद्धांतों के खिलाफ़ था।
गांधी जी जानते थे कि उनकी सहमति के बिना कांग्रेस आगे नहीं बढ़ सकती। इसलिए, सरदार पटेल और उनके अन्य निकट सहयोगियों ने उन्हें समझाने का प्रयास किया कि विभाजन को स्वीकार करना ही उस समय का “कम से कम नुकसान वाला उपाय” है। गांधी जी अंत तक हिचकिचाते रहे, लेकिन जब उन्हें समझ आया कि इससे और बड़ा रक्तपात रोका जा सकता है, तो उन्होंने अनिच्छा के साथ अपनी सहमति दे दी।
गांधी जी और विभाजन के बाद की स्थिति
विभाजन के बाद, गांधी जी ने खुद को हिंसा रोकने और सांप्रदायिक तनाव कम करने के प्रयासों में झोंक दिया। उन्होंने उत्तर भारत और बंगाल में हिंदू-मुस्लिम नेताओं के साथ बैठकर बातचीत की और दोनों समुदायों से शांति बनाए रखने की अपील की। लेकिन 1947 के भारत-पाकिस्तान युद्ध और पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने के सवाल ने स्थिति को और बिगाड़ दिया।
भारत सरकार ने शुरू में पाकिस्तान को यह राशि देने से मना कर दिया क्योंकि नेताओं को आशंका थी कि यह धन भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने में इस्तेमाल होगा। सरदार पटेल और कई अन्य नेताओं की यही राय थी। लेकिन गांधी जी का तर्क था कि यह पैसा विभाजन परिषद के समझौते के तहत पाकिस्तान का अधिकार है और इसे न देना “अन्याय और विश्वासघात” होगा।
जब हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों ने यह मांग उठाई कि सभी मुस्लिमों को पाकिस्तान भेजा जाए, तो गांधी जी को गहरा सदमा पहुंचा। उन्होंने महसूस किया कि भारत का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप और हिंदू-मुस्लिम एकता संकट में है। इसीलिए उन्होंने दिल्ली में अपना पहला आमरण अनशन शुरू किया। उनका उद्देश्य था – साम्प्रदायिक हिंसा को समाप्त करना और पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये की राशि दिलवाना।
गांधी जी का मानना था कि यदि पाकिस्तान में आर्थिक अस्थिरता बनी रही, तो उसका गुस्सा भारत पर निकलेगा और सीमाओं पर हिंसा और तेज़ हो जाएगी। उन्होंने अपने अनशन में साफ कहा कि शांति स्थापित किए बिना नया भारत आगे नहीं बढ़ सकता। अंततः सरकार को उनकी बात माननी पड़ी और पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिए गए।
इस आंदोलन ने हिंदू, मुस्लिम और सिख नेताओं को भी झकझोरा और उन्होंने गांधी जी से वादा किया कि वे हिंसा समाप्त करेंगे। गांधी जी ने जब देखा कि माहौल बदल रहा है, तो उन्होंने संतरे का रस पीकर अपना अनशन तोड़ा।
गांधी जी की हत्या
लेकिन गांधी जी की यह उदार नीति और पाकिस्तान के प्रति न्यायपूर्ण रुख, कट्टरपंथियों को नागवार गुज़रा। 30 जनवरी 1948 की शाम को जब वे दिल्ली के बिड़ला हाउस के प्रांगण में प्रार्थना सभा के लिए जा रहे थे, तब नाथूराम गोडसे ने उन्हें गोली मार दी। गोडसे का संबंध हिंदू महासभा के कट्टरपंथी धड़े से था और वह मानता था कि गांधी जी की नीतियों से भारत कमजोर हो रहा है।
गांधी जी का अंतिम क्षण भी उनके जीवन की तरह ही ऐतिहासिक बना। कहा जाता है कि उनके मुख से अंतिम शब्द “हे राम” निकले, हालांकि इस पर इतिहासकारों में मतभेद है। उनकी हत्या ने पूरे देश को हिला कर रख दिया। जवाहरलाल नेहरू ने रेडियो पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा – “हमारे जीवन से प्रकाश चला गया है।”
गांधी जी की अस्थियां पूरे देश में ले जाई गईं, ताकि लोग उन्हें अंतिम श्रद्धांजलि दे सकें। 12 फरवरी 1948 को इलाहाबाद के संगम पर उनका अस्थि-विसर्जन किया गया। हालांकि उनकी कुछ अस्थियां बाद में विभिन्न स्थानों पर भी विसर्जित की गईं – जैसे 2008 में गिरगांव चौपाटी, और कुछ आज भी पुणे के आगा खान पैलेस तथा लॉस एंजिल्स के एक मंदिर में सुरक्षित हैं।
दक्षिण अफ्रीका का सत्याग्रह और गांधीजी का लेखन
महात्मा गांधी का जीवन दक्षिण अफ्रीका में उनके प्रवास के बिना अधूरा है। यही वह भूमि थी, जहाँ एक साधारण भारतीय वकील मोहनदास करमचंद गांधी ने अपने भीतर छिपे हुए उस महात्मा को खोजा, जिसे दुनिया आगे चलकर पूजने लगी। 1893 से लेकर 1915 तक का यह लंबा कालखंड गांधीजी के लिए आत्मसंघर्ष, सामाजिक प्रयोग और राजनीतिक जागृति का समय था। यही वह दौर था जब उन्होंने ‘सत्याग्रह’ की अवधारणा को आकार दिया – एक ऐसा हथियार जो न तो तलवार था और न बंदूक, लेकिन जिसने साम्राज्यवादी ताक़तों को घुटनों पर ला दिया।
इस महान अनुभव को उन्होंने शब्दों में ढालते हुए 1923 में यरवदा जेल से लिखना शुरू किया। उन्होंने गुजराती में जो ग्रंथ लिखा उसका शीर्षक रखा – ‘दक्षिण आफ्रिकाना सत्याग्रहनो इतिहास’। यह केवल घटनाओं का ब्यौरा नहीं था, बल्कि उस संपूर्ण विचार-प्रक्रिया का दस्तावेज था जिसमें उन्होंने भारतीयों को पहली बार अहिंसक प्रतिरोध की शक्ति का बोध कराया। गांधीजी ने 26 नवंबर 1923 को जेल की कोठरी में इसका पहला अध्याय लिखा और 5 फरवरी 1924 तक 30 अध्याय पूरे कर डाले। जेल से छूटने के बाद उन्होंने इसका लेखन जारी रखा और धीरे-धीरे इसे ‘नवजीवन’ पत्रिका में धारावाहिक रूप से प्रकाशित करवाया।
13 अप्रैल 1924 से लेकर 22 नवंबर 1925 तक हर सप्ताह ‘नवजीवन’ में यह लेख छपता और पाठकों तक पहुँचता रहा। जनता इसे केवल एक पुस्तक नहीं, बल्कि सत्याग्रह की जीवित गाथा मानती थी। जब इसे पुस्तकाकार रूप में 1924 और 1925 में दो खंडों में प्रकाशित किया गया, तो इसका स्वागत स्वतंत्रता सेनानियों ने एक संघर्ष-ग्रंथ के रूप में किया।
बाद में वालजी देसाई ने इसका अंग्रेजी अनुवाद किया, जो 1928 में मद्रास से प्रकाशित हुआ। इस अनुवाद ने गांधीजी के विचारों को वैश्विक मंच तक पहुँचाया। अंग्रेज़ी पढ़ने वाले भारतीयों से लेकर यूरोपीय बुद्धिजीवियों तक, हर किसी ने इस पुस्तक को पढ़कर यह समझा कि बिना हिंसा के भी औपनिवेशिक सत्ता को चुनौती दी जा सकती है। यही कारण था कि आगे चलकर यह पुस्तक ‘भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वैचारिक रीढ़’ कहलाने लगी।
गांधीजी की आत्मकथा – सत्य के प्रयोग
यदि गांधीजी का साहित्य किसी एक ग्रंथ से सबसे अधिक प्रसिद्ध हुआ, तो वह है उनकी आत्मकथा – ‘सत्य के प्रयोग’ (The Story of My Experiments with Truth)। इसे उन्होंने गुजराती में लिखा, लेकिन इसका अनुवाद एक साथ हिंदी और अंग्रेजी में भी होता गया। इस आत्मकथा का आरंभ 1925 में ‘नवजीवन’ में धारावाहिक रूप से हुआ। 29 नवंबर 1925 को इसका पहला अंश छपा और 3 फरवरी 1929 को अंतिम भाग ‘पूर्णाहुति’ प्रकाशित हुआ।
इस आत्मकथा में गांधीजी ने अपने जीवन के हर पहलू को खुलकर रखा – बचपन के प्रसंग, विवाह, इंग्लैंड की पढ़ाई, दक्षिण अफ्रीका का संघर्ष, सत्य और अहिंसा के प्रयोग, और यहाँ तक कि अपने असफलताओं को भी। यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता थी – गांधीजी ने स्वयं को किसी ‘महानायक’ की तरह नहीं प्रस्तुत किया, बल्कि एक साधारण मनुष्य की तरह दिखाया जिसने सत्य की खोज में निरंतर प्रयोग किए।
हिंदी में इसका पहला पुस्तकाकार संस्करण 1928 में सस्ता साहित्य मंडल, दिल्ली से आया। बाद में नवजीवन ट्रस्ट ने इसे 1957 में अधिकृत रूप से प्रकाशित किया। अंग्रेजी में इसका अनुवाद महादेव देसाई ने किया, और वह इतना लोकप्रिय हुआ कि दुनिया भर की भाषाओं में इसका अनुवाद होने लगा। आज यह आत्मकथा विश्व साहित्य की उन पुस्तकों में गिनी जाती है, जिन्हें ‘मानवता के क्लासिक ग्रंथ’ कहा जा सकता है।
गीता माता और गांधी का आध्यात्मिक दर्शन
गांधीजी का अध्यात्मिक जीवन ‘भगवद्गीता’ से गहराई से जुड़ा था। उन्होंने गीता को केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन का व्यावहारिक मार्गदर्शक माना। उनके लिए गीता का ‘अनासक्ति योग’ जीवन का आदर्श था – कर्म करो, पर फल की चिंता मत करो।
1929 में गांधीजी ने गीता का गुजराती अनुवाद पूरा किया। 12 मार्च 1930 को इसे ‘अनासक्ति योग’ नाम से नवजीवन प्रकाशन ने प्रकाशित किया। यह वही समय था जब गांधीजी ने दांडी मार्च की तैयारी की थी। इस दृष्टि से देखा जाए तो गीता का प्रकाशन और नमक सत्याग्रह – दोनों गांधीजी के जीवन में आध्यात्म और राजनीति के अद्भुत संगम को दर्शाते हैं।
बाद में इसका हिंदी, मराठी और बांग्ला अनुवाद हुआ। 1931 में अंग्रेजी अनुवाद भी आया। यरवदा जेल में रहते हुए गांधीजी नियमित रूप से गीता के भावार्थ लिखकर अपने सहयोगी नारायणदास गांधी को भेजते। वे पत्र आश्रम में प्रार्थना सभाओं में पढ़े जाते और लोगों को आत्मबल प्रदान करते। यही लेखन बाद में ‘गीता-बोध’ और ‘गीता माता’ जैसे ग्रंथों में संकलित हुआ।
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय – गांधी साहित्य का महासागर
भारत सरकार ने गांधीजी के लेखन को सुरक्षित रखने के लिए ‘सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय’ प्रकाशित करने का निर्णय लिया। यह बीसवीं सदी का सबसे बड़ा प्रकाशन उपक्रम था।
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अंग्रेजी संस्करण को 100 खंडों में प्रकाशित किया गया और इसका नाम रखा गया The Collected Works of Mahatma Gandhi (CWMG)।
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हिंदी में इसका संस्करण 97 खंडों का रहा।
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गुजराती में इसे 70 खंडों में प्रकाशित किया गया।
यह केवल लेखन का संकलन नहीं था, बल्कि इसमें गांधीजी की चिट्ठियाँ, भाषण, लेख, डायरी नोट्स और उनके दैनिक जीवन से जुड़े दस्तावेज भी सम्मिलित किए गए। हिंदी संस्करण की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसमें शब्दानुक्रमणिका और जीवन-क्रम भी जोड़े गए, जिससे शोधार्थियों के लिए गांधीजी के जीवन की तिथि-वार जानकारी पाना आसान हो गया।
आलोचना और विवाद
गांधीजी की लोकप्रियता जितनी बड़ी थी, उतने ही बड़े पैमाने पर उनकी आलोचना भी हुई। कुछ लेखकों ने उन्हें ‘हिंदू धर्म का प्रतिनिधि’ बताकर मुस्लिम विरोधी ठहराया, तो कुछ ने कहा कि उन्होंने मुसलमानों के पक्ष में जाकर हिंदू समाज के हितों को नुकसान पहुँचाया।
कर्नल जी.बी. सिंह की पुस्तक ‘गांधी: बिहाइंड द मास्क ऑफ डिविनिटी’ (2004) और जोसेफ़ लेलीवेल्ड की ‘ग्रेट सोल’ (2011) इसी धारा की आलोचनात्मक पुस्तकें हैं। लेलीवेल्ड ने गांधी और उनके दक्षिण अफ्रीकी सहयोगी हरमन कालेनबाख के संबंधों को लेकर विवाद खड़ा किया। भारत सरकार ने इस विषय से जुड़े दस्तावेज़ों को नीलामी से खरीदकर देश में सुरक्षित किया।
गांधी की प्रेरणा और विश्व पर प्रभाव
गांधीजी का जीवन केवल भारत तक सीमित नहीं रहा। उनकी अहिंसा और सत्य की नीति ने दुनिया के सबसे बड़े आंदोलनों को जन्म दिया।
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अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग जूनियर और जेम्स लाव्सन ने गांधी की शिक्षाओं से प्रेरणा लेकर नस्लीय भेदभाव के खिलाफ आंदोलन किया।
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दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला ने कहा कि गांधी का सत्याग्रह ही उनकी लड़ाई का आधार था।
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म्यांमार की आंग सान सू की, पाकिस्तान के खान अब्दुल गफ्फार खान, और दक्षिण अफ्रीका के स्टीव बीको भी गांधी से प्रेरित हुए।
आइंस्टाइन ने उनके बारे में कहा था – “आने वाली पीढ़ियों को यह विश्वास करना मुश्किल होगा कि ऐसा भी कोई मनुष्य कभी धरती पर चला था।”
हिंसक प्रतिरोध की अस्वीकृति और गांधी का दृष्टिकोण
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी का योगदान केवल राजनीतिक नेतृत्व तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने एक ऐसा वैचारिक आयाम भी प्रस्तुत किया जिसने पूरी दुनिया को प्रभावित किया। गांधी का सबसे प्रमुख विचार अहिंसा और सत्याग्रह था, जिसे उन्होंने न केवल भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई में अपनाया बल्कि उसे एक सार्वभौमिक सिद्धांत के रूप में भी प्रचारित किया।
हालाँकि, जब भारत में कई क्रांतिकारी नेता—जैसे भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और ऊधम सिंह—हिंसक मार्ग अपनाकर स्वतंत्रता पाने की कोशिश कर रहे थे, गांधी ने उसका स्पष्ट विरोध किया। उन्होंने कहा कि हिंसा कभी भी स्थायी स्वतंत्रता नहीं ला सकती। उनके इस रुख ने उन्हें राजनीतिक आलोचना और विरोध की आग में भी झोंक दिया। कई राजनीतिक दलों और क्रांतिकारी समूहों ने यह आरोप लगाया कि गांधी क्रांतिकारियों की बलिदानी भावना का सम्मान नहीं करते और अंग्रेजों के विरुद्ध उनके शस्त्र-आधारित संघर्ष को कमजोर करते हैं।
गांधी पर यह आरोप विशेष रूप से तब तेज़ हुआ जब उन्होंने भगत सिंह और उनके साथियों की फाँसी के विरोध में आंदोलन करने से इनकार किया। इस रुख ने कुछ समूहों को यह सोचने पर विवश कर दिया कि गांधी अंग्रेजों से समझौते के लिए क्रांतिकारियों के बलिदान को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं।
गांधी का तर्क: हिंसा क्यों नहीं?
गांधी स्वयं इस आलोचना से भलीभाँति परिचित थे। उन्होंने इस विषय पर लिखते हुए कहा था:
"एक ऐसा समय था जब लोग मुझे सुनते थे कि बिना हथियार के अंग्रेजों से कैसे लड़ा जा सकता है, क्योंकि तब हमारे पास हथियार नहीं थे। पर आज मुझे कहा जाता है कि मेरी अहिंसा किसी काम की नहीं क्योंकि यह हिंदू-मुस्लिम दंगों को नहीं रोक सकती, और इसलिए आत्मरक्षा के लिए हथियार उठाना ही पड़ेगा।"
गांधी का मानना था कि हिंसा केवल हिंसा को जन्म देती है और इससे स्थायी समाधान नहीं निकल सकता। उनका विश्वास था कि नैतिक शक्ति और आत्मबलिदान की ताक़त, शस्त्रबल से कहीं अधिक गहरी और प्रभावशाली होती है।
यहूदियों के प्रश्न पर गांधी
गांधी का अहिंसात्मक दृष्टिकोण केवल भारत तक सीमित नहीं था। 1930 और 1938 के बीच जब जर्मनी में यहूदियों पर नाजी शासन द्वारा भयानक अत्याचार किए जा रहे थे, गांधी ने उन्हें भी अहिंसा का मार्ग अपनाने की सलाह दी। यह बात बेहद विवादास्पद थी और बाद में उनके लिए भारी आलोचना का कारण बनी।
उन्होंने लिखा कि यदि वे स्वयं एक यहूदी होते और जर्मनी में रहते, तो वे निर्वासन या आत्मसमर्पण के बजाय सत्याग्रह और अहिंसक प्रतिरोध का मार्ग चुनते। उनका कहना था कि अगर यहूदी सामूहिक रूप से स्वेच्छा से पीड़ा सहने का निश्चय कर लें, तो वे हिटलर की हिंसा को नैतिक स्तर पर पराजित कर सकते हैं। गांधी का यह विचार था कि स्वेच्छापूर्वक कष्ट सहना अंततः आंतरिक शक्ति और आनंद देता है, और अत्याचार को भी नैतिक पराजय की ओर ले जाता है।
गांधी के इन विचारों ने उस समय के यहूदी बुद्धिजीवियों और विद्वानों को अत्यंत विचलित किया। मार्टिन बूबर, जो स्वयं यहूदी राज्य के विरोधी थे, ने 1939 में गांधी को पत्र लिखकर तीखी आलोचना की। उनका कहना था कि गांधी की तुलना गलत है, क्योंकि अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के साथ किया गया व्यवहार और नाजियों द्वारा यहूदियों का उत्पीड़न पूरी तरह से भिन्न था। भारतीयों के पास कुछ अवसरों पर प्रतिरोध और बल-प्रयोग की संभावना थी, जबकि यहूदियों को लगभग पूर्णतः नष्ट कर देने की नीति अपनाई गई थी।
दक्षिण अफ्रीका के अनुभव और विवाद
गांधी के जीवन में दक्षिण अफ्रीका का अनुभव एक निर्णायक मोड़ था। यहीं उन्होंने पहली बार सत्याग्रह का प्रयोग किया। किंतु, उनके शुरुआती लेखन और वक्तव्यों ने बाद में उन्हें नस्लवादी कहे जाने के आरोपों का सामना करवाया।
1908 में उन्होंने ‘इंडियन ओपिनियन’ में लिखा था कि काले कैदी गंदे और असभ्य होते हैं। उन्होंने यह भी कहा था कि भारतीय “निस्संदेह काले लोगों से श्रेष्ठ हैं।” हालांकि, यह भी उल्लेखनीय है कि समय के साथ उनके विचारों में परिवर्तन आया। जेल के अनुभव और संघर्षों ने उन्हें अफ्रीकियों की पीड़ा को गहराई से समझने का अवसर दिया। बाद में उनके विचार अधिक समावेशी और संवेदनशील हो गए।
इतिहासकार सुरेन्द्र भाना और गुलाम वाहेद ने अपनी पुस्तक “द मेकिंग ऑफ़ ए पॉलिटिकल रिफॉर्मर: गांधी इन साउथ अफ्रीका” में तर्क दिया है कि गांधी शुरू में उस समय के औपनिवेशिक पूर्वाग्रहों से प्रभावित थे, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने उन पूर्वाग्रहों से स्वयं को मुक्त किया। यही कारण है कि नेल्सन मंडेला ने भी गांधी को प्रेरणा का स्रोत माना और 2003 में जोहान्सबर्ग में उनकी प्रतिमा का अनावरण किया।
गांधी का राज्यविरोधी दृष्टिकोण
गांधी का स्वराज्य का विचार केवल राजनीतिक आज़ादी तक सीमित नहीं था। वे राज्यविरोधी (anti-statist) दृष्टिकोण रखते थे। उनके लिए वास्तविक स्वतंत्रता का अर्थ था—हर व्यक्ति अपने ऊपर शासन करे। उनका सपना हजारों आत्मनिर्भर ग्रामों का था, जहाँ लोग बिना राज्य के हस्तक्षेप के स्वतंत्र रूप से जीवन जी सकें।
गांधी ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था से प्रभावित नहीं थे। वे भारत की स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस को भंग कर प्रत्यक्ष लोकतंत्र की स्थापना करना चाहते थे। उनका मानना था कि भारत को ‘इंग्लिस्तान’ बनाने के बजाय ‘हिंदुस्तान’ के अपने ही स्वरूप में विकसित होना चाहिए।
गांधी की आलोचनाएँ
गांधी को लेकर कई आलोचनाएँ की जाती रही हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं:
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ज़ुलु विद्रोह में अंग्रेजों का साथ देना।
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दोनों विश्वयुद्धों में अंग्रेजों को समर्थन देना।
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खिलाफत आंदोलन जैसे धार्मिक आंदोलन को राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल करना।
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क्रांतिकारियों के हिंसक कार्यों की निंदा करना।
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गांधी-इरविन समझौता, जिससे क्रांतिकारी आंदोलन कमजोर पड़ा।
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सुभाष चंद्र बोस के अध्यक्ष बनने पर असहमति।
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चौरी-चौरा कांड के बाद असहयोग आंदोलन को अचानक समाप्त कर देना।
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स्वतंत्रता के बाद नेहरू को प्रधानमंत्री बनाने में भूमिका निभाना।
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पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिलाने के लिए अनशन करना।
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भीमराव अंबेडकर का मानना कि गांधी जाति प्रथा के समर्थक थे।
इन आलोचनाओं के बावजूद, गांधी का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे एक साथ राष्ट्रवादी नेता, दार्शनिक, आध्यात्मिक मार्गदर्शक और सामाजिक सुधारक थे।
विरासत और सम्मान
2 अक्टूबर को गांधी जयंती भारत में राष्ट्रीय अवकाश है, परंतु यह केवल भारत तक सीमित नहीं रहा। संयुक्त राष्ट्र ने इसे ‘अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस’ घोषित किया। गांधी की प्रतिमाएँ आज दुनिया के सैकड़ों शहरों में स्थापित हैं – लंदन के पार्लियामेंट स्क्वायर से लेकर न्यूयॉर्क के यूनाइटेड नेशन्स हेडक्वार्टर तक।
भारत सरकार ने उनकी स्मृति में गांधी शांति पुरस्कार स्थापित किया। यद्यपि गांधीजी को नोबेल शांति पुरस्कार कभी नहीं मिला, लेकिन 1937 से 1948 तक पाँच बार उनका नामांकन हुआ। 1948 में उनकी हत्या हो जाने के कारण पुरस्कार उन्हें नहीं दिया जा सका। बाद में नोबेल समिति ने इसे अपनी ऐतिहासिक भूल माना।
Conclusion- महात्मा गांधी:
आज के समय में भी महानतम, अनुकूल और अमर
महात्मा गांधी केवल भारत के स्वतंत्रता संग्राम के नेता नहीं थे; वे एक ऐसी महानतम शख्सियत थे जिन्होंने अपने जीवन को सत्य, अहिंसा और बलिदान का अमूल्य पाठ बना दिया। उनके जीवन और परिवार की देन पूरे देश पर स्थायी प्रभाव छोड़ती है और यह प्रभाव आने वाली पीढ़ियों तक अमिट रहेगा। गांधी जी ने जो आदर्श स्थापित किए, वे न केवल उनके समय में, बल्कि आज के आधुनिक युग में भी प्रासंगिक और अनुकूल साबित होते हैं।
गांधी जी के बलिदान
गांधी जी ने अपने जीवन को देश और मानवता के सर्वोच्च हित के लिए समर्पित किया। उनका हर कदम केवल राजनीतिक विजय या सत्ता पाने के लिए नहीं था; बल्कि यह नैतिक और आध्यात्मिक संघर्ष था। उन्होंने अपने परिवार, निजी सुख, आराम और व्यक्तिगत सम्मान की सीमाएँ लांघकर असंख्य बलिदान दिए।
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कई वर्षों तक अंग्रेज़ों के अत्याचार और कारागार का सामना करना।
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विभाजन और देशभक्ति के लिए उपवास और व्यक्तिगत कठिनाइयाँ सहना।
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अपने जीवन की सर्वोच्च कीमत—अहिंसा और सत्य के मार्ग में उनका अंततः बलिदान—यह दर्शाता है कि उनका आदर्श केवल शब्दों में नहीं, बल्कि जीवन के हर निर्णय में प्रतिबिंबित था।
इन बलिदानों को याद करते हुए, हम यह समझ सकते हैं कि गांधी जी ने अपने व्यक्तित्व और परिवार के बलिदान के माध्यम से पूरे देश को संघर्ष और करुणा का पाठ दिया। उनके परिवार ने भी उनकी विचारधारा का समर्थन किया, उनके पीछे खड़े रहते हुए कठिन परिस्थितियों में उनका साथ दिया। यही कारण है कि गांधी और उनके परिवार की देन संपूर्ण राष्ट्र पर स्थायी है।
गांधी जी की आज के समय में प्रासंगिकता
आज जब भारत और विश्व वैश्वीकरण, सामाजिक असमानता, जातिवाद और हिंसा जैसी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, गांधी जी के सिद्धांत और अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं।
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सत्य और नैतिकता का मार्ग: डिजिटल युग में, जब फेक न्यूज़ और राजनीतिक प्रोपेगेंडा फैल रहे हैं, गांधी जी का मार्गदर्शन हमें सत्य और पारदर्शिता के लिए प्रेरित करता है।
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अहिंसा का अमूल्य संदेश: वैश्विक हिंसा, सांप्रदायिक संघर्ष और युद्ध के बीच, उनके अहिंसात्मक आंदोलन का दृष्टिकोण आज भी शांति और सामूहिक करुणा का आधार बन सकता है।
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स्वावलंबन और सतत विकास: गांधी जी का ग्राम स्वराज और स्वावलंबन का आदर्श आज के आर्थिक असमानता और संसाधन संकट में स्थिर और टिकाऊ समाधान प्रस्तुत करता है।
इस तरह, गांधी जी के जीवन और उनके बलिदानों की शक्ति केवल उनके समय तक सीमित नहीं है; वे आज भी देश और विश्व के लिए अमूल्य मार्गदर्शन हैं।
गांधी और उनका परिवार: देश पर अमिट प्रभाव
गांधी जी केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक संपूर्ण परंपरा और परिवार का प्रतिनिधित्व थे। उनका परिवार उनके विचारों और आदर्शों के साथ खड़ा रहा, और इस परिवार ने भी देश के लिए अपनी भूमिका निभाई।
देश पर उनका यह अमिट प्रभाव केवल राजनीतिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं रहा; यह सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक संरचना में स्थायी बदलाव लेकर आया। उनके द्वारा स्थापित आदर्श—सत्य, अहिंसा और स्वावलंबन—देश के हर नागरिक के जीवन में प्रतिबिंबित होते हैं। यही कारण है कि गांधी जी और उनका परिवार आज भी देश का सबसे बड़ा आभार और सम्मान पाने के पात्र हैं।
महात्मा गांधी के जीवन का अध्ययन हमें यह स्पष्ट रूप से दिखाता है कि वे केवल स्वतंत्रता सेनानी नहीं थे; वे महानतम शिक्षक, नैतिक नेता और जीवन दर्शन के प्रवर्तक थे। उनका जीवन और उनके परिवार का बलिदान आज भी हमारे समाज और राष्ट्र के लिए अनमोल प्रेरणा है।
आज के समय में भी, उनके सिद्धांत—सत्य, अहिंसा, बलिदान और स्वावलंबन—हमें नैतिक और सामाजिक दृष्टि से मार्गदर्शन देते हैं। गांधी जी और उनके परिवार की देन न केवल इतिहास का हिस्सा है, बल्कि यह वर्तमान और भविष्य के लिए स्थायी प्रेरणा का स्रोत है।
अतः हम श्रद्धा और सम्मान के साथ कह सकते हैं कि गांधी जी न केवल महानतम हैं, बल्कि आज के आधुनिक युग में भी उनके विचार और आदर्श पूर्णतः अनुकूल, सार्थक और अमर हैं। उनके बलिदानों को सलाम और उनके परिवार की देन को सलाम। उनका प्रभाव और आभार देश पर सदैव अमिट रहेगा।
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