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अमेरिका की चालबाज़ी और इज़राइल-ईरान युद्ध: रणनीति, पछतावा और पराजय की पटकथा

 ✍🏻 Z S Razzaqi | अंतरराष्ट्रीय विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार 

भूमिका: जब विश्व राजनीति बन जाती है शतरंज का खेल

21वीं सदी की वैश्विक राजनीति अब युद्ध और शांति की कूटनीति से कहीं अधिक गहराई लिए हुए है। यहां हर मोहरे का इस्तेमाल किसी गहरे मकसद के लिए होता है—कभी सत्ता के विस्तार के लिए, कभी आर्थिक वर्चस्व के लिए, और कभी अपने गुनाहों की परछाइयों को छुपाने के लिए। अमेरिका, इस खेल का सबसे पुराना और परिपक्व खिलाड़ी है, जिसने बार-बार यह सिद्ध किया है कि वह मित्रता, सहयोग और युद्ध—alliance, peace और invasion—सबको एक ही छतरी के नीचे संभाल सकता है, बशर्ते इससे उसे रणनीतिक लाभ मिले। इज़राइल द्वारा ईरान पर किया गया हालिया हमला इसी वैश्विक चालबाज़ी का परिणाम है, जिसे अमेरिका और विशेषतः डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों के आलोक में पढ़ा जाना चाहिए।



डोनाल्ड ट्रंप का इशारा और इज़राइल का हमला: क्या यह सिर्फ एक सैन्य कदम था?

इज़राइल ने हाल ही में ईरान पर जो हवाई हमला किया, वह सामान्य सैन्य प्रतिक्रिया नहीं बल्कि एक सोची-समझी साम्राज्यवादी रणनीति थी। हमले के पीछे ट्रंप की पूर्ववर्ती चेतावनियाँ और अमेरिका के गुप्त समर्थन को नकारा नहीं जा सकता। हालांकि ट्रंप स्वयं अब बयान दे रहे हैं कि वे “डायरेक्ट वॉर” में शामिल नहीं होंगे, लेकिन यह वही ट्रंप हैं जिन्होंने अतीत में ईरान के जनरल कासिम सुलेमानी को ड्रोन से मार गिराकर मध्य-पूर्व को एक और बार विस्फोट की आग में झोंक दिया था।

इज़राइल को शायद लगा होगा कि ट्रंप की छत्रछाया में वह बिना किसी परिणाम के इस्लामी गणराज्य ईरान को नीचा दिखा सकता है। लेकिन यह भूल थी। ईरान केवल एक देश नहीं है, वह पूरे शिया मुस्लिम जगत की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है, और उसकी सैन्य शक्ति पश्चिमी अनुमानों से कहीं अधिक गहरी और संकल्पशील है।


ईरान का पलटवार: अमेरिका-इज़राइल के गठजोड़ के लिए चेतावनी की गूंज

ईरान का जवाब जितना तीव्र था, उतना ही चौंकाने वाला भी। टेहरान ने सिर्फ प्रतीकात्मक हमला नहीं किया, बल्कि इज़राइल की सैन्य प्रतिष्ठानों को टारगेट करके यह स्पष्ट कर दिया कि अगर उसकी संप्रभुता को चुनौती दी गई, तो परिणाम युद्ध जैसी तबाही हो सकते हैं। अमेरिका, जो इज़राइल के इस पूरे हमले के पीछे खड़ा था, अचानक से पीछे हट गया और ट्रंप का नया बयान सामने आया कि अमेरिका इस युद्ध में “डायरेक्टली इनवॉल्व नहीं” होगा।

यह ठीक उसी तरह का दोहराव है, जैसा अमेरिका ने यूक्रेन के साथ किया था—पहले रूस से लड़वाना और फिर जब जंग महंगी पड़ने लगी तो ज़ेलेंस्की को अकेला छोड़ देना। आज जब ज़ेलेंस्की अमेरिका आते हैं, तो उनका चेहरा किसी योद्धा का नहीं बल्कि किसी भिखारी राष्ट्राध्यक्ष का लगता है, जो अपने देश की रक्षा के लिए मदद की भीख मांग रहा हो।


ग़ज़ा नरसंहार और इज़राइल की अंतरराष्ट्रीय स्थिति: क्या अब उसका समय खत्म हो रहा है?

ग़ज़ा में जो कुछ भी हुआ, उसे ‘नरसंहार’ कहने में अब कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। इज़राइल ने अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए निर्दोष फिलिस्तीनियों पर अत्याचार की जो श्रृंखला चलाई, उसकी गूंज अब विश्व समुदाय तक पहुंचने लगी है। अब संयुक्त राष्ट्र से लेकर यूरोपीय संघ तक इज़राइल के विरुद्ध निंदा प्रस्ताव आने लगे हैं। ग़ज़ा में मानवाधिकार उल्लंघन के दाग अब छुपाए नहीं जा सकते।

यह युद्ध सिर्फ एक सीमित संघर्ष नहीं रहा; यह सभ्यता और बर्बरता के बीच की रेखा को फिर से खींचने की कोशिश था। और इज़राइल अब उस रेखा के गलत तरफ खड़ा है।


अमेरिकी परंपरा: दूसरों को लड़वाओ, खुद सुरक्षित रहो

चाहे वियतनाम युद्ध हो, अफगानिस्तान का मिशन हो, या यूक्रेन को रूस से भिड़ाने की साजिश—अमेरिका का फॉर्मूला हमेशा एक जैसा रहा है: दूसरों की जमीन पर अपने हितों की रक्षा। वह अपने हाथ जलाए बिना युद्ध करवाता है और जब हालात बेकाबू हो जाते हैं, तो पीछे हट जाता है। यही उसने यूक्रेन के साथ किया, और अब वही इज़राइल के साथ दोहराया जा रहा है।

ट्रंप का यह बयान कि अमेरिका "डायरेक्ट वार" से दूर रहेगा, इस बात का स्पष्ट संकेत है कि इज़राइल को अब अकेले ही ईरान के खिलाफ खड़ा होना होगा। यह ठीक वैसा ही है, जैसे शेर को उकसाकर बंदर को सामने कर दिया जाए।


ईरान की बढ़ती सैन्य हैसियत: खाड़ी में बदलते संतुलन की दस्तक

ईरान कोई छोटा या असंगठित देश नहीं है। वह न सिर्फ उन्नत मिसाइल तकनीक और ड्रोन सिस्टम का स्वामी है, बल्कि उसकी सेना धार्मिक और वैचारिक आस्था से लैस है। यह केवल हथियारों की लड़ाई नहीं, विश्वास और अस्मिता की लड़ाई भी है। अमेरिका और इज़राइल को यह समझना होगा कि ईरान के खिलाफ छद्म युद्ध छेड़ना अब उनके लिए आत्मघाती बन सकता है।

युद्ध के क्षेत्रीय विस्तार का खतरा भी गहराता जा रहा है—हिज़्बुल्लाह, हौथी विद्रोही, इराकी मिलिशिया जैसे गुट अब पूरी तरह ईरान के साथ खड़े हैं। इस पूरे घटनाक्रम ने अमेरिका की मध्य-पूर्व नीति की नाकामी को उजागर कर दिया है।


निष्कर्ष: एक थके हुए साम्राज्य का अंतिम प्रदर्शन?

अगर इतिहास को ध्यान से पढ़ें, तो यह स्पष्ट है कि हर साम्राज्य अपने पतन से पहले अपनी पूरी ताकत झोंक देता है। अमेरिका और इज़राइल का मौजूदा उग्र रवैया उसी ‘फाइनल शो’ जैसा लग रहा है, जहां झूठे अहंकार और खोखले वर्चस्व को बचाने की आखिरी कोशिश की जा रही है।

लेकिन अब विश्व जनमत जागरूक है। सोशल मीडिया, वैश्विक मानवाधिकार संगठन और युवाओं की आवाज़ इस युद्ध नीति के खिलाफ मुखर हो रही है। यह समय है जब हमें यह सवाल पूछना चाहिए:

"क्या दुनिया वाकई अमेरिका के इन छुपे हुए एजेंडा के पीछे खून और बर्बादी के नए अध्याय लिखने देगी?"

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