नई दिल्ली, 3 जून 2025
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच मई 2025 के भारत-पाकिस्तान सैन्य संघर्ष के दौरान हुए कथित संवाद को लेकर देश की राजनीति में नया तूफान खड़ा हो गया है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने पीएम मोदी पर कटाक्ष करते हुए उन्हें 'नरेंद्र सरेंडर' कह डाला, और आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री ने ट्रंप के एक फोन पर पाकिस्तान के समक्ष घुटने टेक दिए।
हालांकि बीजेपी ने इस बयान को "देशविरोधी" बताया, लेकिन सवाल यह भी उठ रहा है कि यदि अमेरिकी हस्तक्षेप की बात झूठ थी, तो फिर ट्रंप ने अमेरिका की अदालत में झूठा हलफनामा क्यों दिया।
राहुल गांधी का आरोप: प्रधानमंत्री ने आत्मसमर्पण किया
भोपाल में एक चुनावी सभा में राहुल गांधी ने तीखा प्रहार करते हुए कहा कि जिस समय भारतीय सेना पाकिस्तान को निर्णायक जवाब दे रही थी, उसी दौरान प्रधानमंत्री ने अमेरिकी दबाव में आकर पीछे हटने का फैसला लिया।
उन्होंने कहा कि ट्रंप ने एक फोन किया और प्रधानमंत्री ने कहा, "यस सर।" राहुल ने इस प्रकरण की तुलना 1971 के भारत-पाक युद्ध से की, जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अमेरिका की चेतावनियों की परवाह किए बिना बांग्लादेश का निर्माण कराया।
राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि राष्ट्रीय सुरक्षा और देश की गरिमा के सवाल पर नरेंद्र मोदी सरकार झुकने में संकोच नहीं करती। उनका कहना था कि इतिहास गवाह है कि संघ और भाजपा सत्ता के आगे हमेशा झुके हैं, चाहे वह ब्रिटिश शासन रहा हो या आज की वैश्विक महाशक्तियाँ।
बीजेपी की प्रतिक्रिया: आरोप देशविरोधी हैं
बीजेपी ने राहुल गांधी के इस बयान को ग़ैरज़िम्मेदाराना और अपमानजनक बताया। पार्टी प्रवक्ता तुहिन सिन्हा ने कहा कि यह बयान उन सैनिकों का अपमान है जो सीमाओं पर जान की बाज़ी लगा रहे हैं। उनका कहना था कि राहुल गांधी बार-बार पाकिस्तान की भाषा बोलते हैं, और यह दर्शाता है कि उनके पास न तो राष्ट्रीय सुरक्षा की समझ है, न संवेदनशीलता।
बीजेपी के कई नेताओं ने इसे चुनाव से पहले कांग्रेस की "राजनीतिक नौटंकी" बताया और कहा कि यह बयान आतंकवाद के खिलाफ भारत की निर्णायक नीति को बदनाम करने की कोशिश है।
ऑपरेशन सिंदूर: सैन्य संघर्ष या राजनीतिक समझौता?
मई 2025 में पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर में आतंकी घुसपैठ और ड्रोन हमलों को अंजाम दिया, जिसके जवाब में भारत ने 'ऑपरेशन सिंदूर' नामक सैन्य अभियान की शुरुआत की। भारतीय वायुसेना और सेना ने सीमापार आतंकवादी शिविरों पर हमले किए। यह संघर्ष करीब सौ घंटे तक चला।
भारत सरकार ने शुरू में दावा किया था कि वह सिर्फ आतंकवादी अड्डों को निशाना बना रही है और पाकिस्तान को चेतावनी दी थी कि अगर हमला जारी रहा तो परिणाम गंभीर होंगे। लेकिन चौथे दिन अचानक संघर्षविराम की घोषणा हो गई। यह वही समय था जब ट्रंप ने बयान दिया कि उन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव कम करवाया।
ट्रंप का दावा बनाम भारत का खंडन
डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका की एक संघीय अदालत में शपथपूर्वक बयान दिया कि उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी को फोन किया और भारत को सैन्य कार्रवाई रोकने के लिए मनाया। उनके शब्द थे, "I sure as hell helped." यह बयान अमेरिकी अदालत के रिकॉर्ड का हिस्सा है।
वहीं भारत सरकार ने बार-बार इन दावों को खारिज किया है। विदेश मंत्रालय ने कहा कि भारत ने किसी अमेरिकी दबाव में कोई फैसला नहीं लिया, बल्कि संघर्षविराम पाकिस्तान की पहल पर हुआ।
परंतु राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भारत के रवैये में अचानक बदलाव, बयानबाज़ी की तीव्रता में गिरावट, और अमेरिकी मीडिया में लीक हुई जानकारियाँ यह संकेत देती हैं कि किसी प्रकार की कूटनीतिक बातचीत अवश्य हुई थी।
क्या राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी राजनीति?
यह घटना सिर्फ भारत-पाक संबंधों तक सीमित नहीं रही, बल्कि यह सवाल भी उठ खड़ा हुआ कि क्या भारत की विदेश नीति अब इतनी लचीली हो गई है कि वह महाशक्तियों के दबाव में झुक जाती है।
प्रधानमंत्री मोदी हमेशा से '56 इंच' के साहस और निर्णायक नेतृत्व की बात करते रहे हैं, लेकिन विपक्ष का कहना है कि जब वास्तविक संकट सामने आता है, तो सरकार अचानक नरम पड़ जाती है। कांग्रेस का तर्क है कि अगर अमेरिका की भूमिका नहीं थी, तो ट्रंप झूठ क्यों बोलेंगे, और अगर थी, तो देश को क्यों नहीं बताया गया।
निष्कर्ष:-
राहुल गांधी की 'नरेंद्र सरेंडर' टिप्पणी भले ही एक राजनीतिक जुमला हो, लेकिन इसने राष्ट्रीय सुरक्षा, कूटनीति और नेतृत्व की पारदर्शिता पर एक जरूरी बहस छेड़ दी है। क्या देश की जनता को यह जानने का अधिकार नहीं कि युद्ध और शांति का फैसला सिर्फ दिल्ली में होता है या वाशिंगटन में भी उसकी स्क्रिप्ट लिखी जाती है?
ऐसे में सवाल यही है कि क्या राष्ट्रहित में लिए गए निर्णय वास्तव में राष्ट्रीय होते हैं, या वैश्विक मंच पर किसी और की सहमति से संचालित होते हैं।ये भी पढ़ें
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