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भारत के बाघों के संरक्षक: वाल्मीकि थापर का निधन, एक युग का अंत

 लेखक: Z S RAZZAQI| दिनांक: 31 मई 2025 | स्थान: नई दिल्ली

भारतीय वन्यजीवन संरक्षण के अग्रदूत, लेखक, विचारक और बाघों के प्रति गहरे समर्पण के लिए प्रसिद्ध वाल्मीकि थापर का शनिवार सुबह उनके नई दिल्ली स्थित कुटिल्य मार्ग स्थित आवास पर निधन हो गया। वे 73 वर्ष के थे और पिछले एक वर्ष से कैंसर से पीड़ित थे। उनके निधन के साथ भारत के वन्यजीवन संरक्षण आंदोलन का एक चमकता हुआ सितारा अस्त हो गया।



एक जीवन, जो बाघों के लिए समर्पित था

पिछले पाँच दशकों से अधिक समय तक वाल्मीकि थापर का नाम भारत में बाघों के संरक्षण का पर्याय बन चुका था। उन्होंने न केवल 25 से अधिक किताबें लिखीं, बल्कि बीबीसी की प्रतिष्ठित डॉक्युमेंट्री Land of the Tiger (1997) सहित कई प्रसिद्ध डॉक्युमेंट्रीज़ का प्रस्तुतीकरण भी किया।

उनका संरक्षण यात्रा की शुरुआत वर्ष 1976 में हुई, जब वे रणथंभौर टाइगर रिज़र्व के निदेशक फतेह सिंह राठौर से मिले। यह मुलाकात केवल एक व्यक्तिगत रिश्ता नहीं बनी, बल्कि आने वाले दशकों के लिए एक मिशनरी साझेदारी बन गई। राठौर और थापर ने मिलकर भारत में बाघ संरक्षण की नीतियों और सार्वजनिक चेतना को एक नई दिशा दी।


सरकारी तंत्र के भीतर और बाहर की भूमिका

थापर ने सरकार की कई शीर्ष संस्थाओं में सेवा दी, जिनमें राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (National Board for Wildlife) और टाइगर टास्क फोर्स शामिल हैं। यह टास्क फोर्स राजस्थान के सरिस्का टाइगर रिज़र्व से बाघों के रहस्यमय ढंग से गायब होने के बाद गठित की गई थी।

उन्होंने अक्सर भारत की सुस्त नौकरशाही व्यवस्था की आलोचना की और प्रसिद्ध रूप से कहा:
"ब्यूरोक्रेसी ने बाघों को गोलियों से ज़्यादा मारा है।"

उनका यह विचार सरकार और संरक्षण के बीच के संबंधों पर गहरी रोशनी डालता है।


जन भागीदारी और सामाजिक पहल

1987 में थापर ने रणथंभौर फाउंडेशन की स्थापना की, जिसका उद्देश्य स्थानीय समुदायों को संरक्षण में शामिल करना था। इस संगठन ने दास्तकार नामक गैर-लाभकारी संस्था के साथ मिलकर विस्थापित गांववासियों के लिए आजीविका के साधन भी निर्मित किए।

थापर यह मानते थे कि बिना स्थानीय समुदायों को सशक्त किए बिना वन्यजीवन संरक्षण एक अधूरी प्रक्रिया है। उन्होंने 'टाइगरवॉच' जैसी संस्थाओं के माध्यम से जमीनी स्तर पर भी काम किया और कभी अपने मिशन से पीछे नहीं हटे।

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