उर्दू शायरी: तहज़ीब की तामीर से ताज़गी तक का सफ़र
उर्दू शायरी महज़ लफ़्ज़ों का खेल नहीं, बल्कि एक ऐसा रूहानी अहसास है जिसमें सदियों की तहज़ीब, मोहब्बत, दर्द, इंसानियत और ख़्वाबों की खुशबू समाई हुई है। यह महज़ एक ज़बान नहीं, बल्कि एक तहज़ीब है, एक नज़रिया है — जो दिलों को जोड़ती है, जख़्मों को मरहम देती है, और इंकलाब की बुनियाद भी बनती है। इस आलेख में हम उर्दू शायरी के उस पुरअसरार और दिलकश सफ़र पर नज़र डालेंगे जो सत्रहवीं सदी की दिल्ली-लखनऊ की गलियों से शुरू होकर आज के डिजिटल ज़माने तक पहुँचता है।
1. इब्तिदा: सूफ़ियाना असर और दिल्लगी का दौर
उर्दू अदब की शुरुआत दरअसल हिंदी, फ़ारसी, तुर्की और अरबी ज़बानों की मेल से हुई। शुरुआती दौर में सूफ़ियों ने इसे रूहानियत का ज़रिया बनाया। अमीर खुसरो का नाम यहाँ सबसे पहले लिया जाना चाहिए, जिन्होंने फ़ारसी और ब्रज का संगम करके ऐसी ज़बान रच दी जो आम अवाम के दिल तक उतर गई।
"छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाय के..."
— यह ख़ुसरो की सूफ़ियाना शायरी आज भी महफ़िलों को रोशन करती है।
2. दक्कनी शायरी और मीर का दर्द
दक्कन में मोहम्मद क़ुली क़ुतुब शाह जैसे बादशाह-शायरों ने उर्दू शायरी को एक ग़ज़लाना रवानी दी। मगर जब बात क्लासिकी शायरी की आती है तो मीर तकी मीर का ज़िक्र बिला शक पहले होता है। उनका शेर,
"मिरे होने में क्या शक है मगर, ये दिल भी तो नहीं रहा मुझमें"
उर्दू शायरी में दर्द, विरह और वजूद की जंग को वो आवाज़ दी जिसे सदियाँ गुनगुनाती रहेंगी।
3. ग़ालिब: तख़य्युल और तहज़ीब की बुलंदी
मिर्ज़ा ग़ालिब, जिनका कलाम आज भी इश्क़ के हर दर्द को बयाँ करता है, उन्होंने उर्दू शायरी को एक नया बौद्धिक आयाम दिया।
"हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले"
— ग़ालिब ने शायरी में तख़य्युल, फिलॉसफी और खुद्दारी को इस तरह पिरोया कि उनका नाम अदब का मयार बन गया।
4. इंकलाब की आवाज़: हाली, अकबर और इक़बाल
अल्ताफ़ हुसैन हाली ने जब "मुसद्दस-ए-हाली" लिखा तो शायरी समाज सुधार की ज़मीन बन गई।
अकबर इलाहाबादी ने तंज़ और तबीअत के संगम से औपनिवेशिक सत्ता की चूले हिला दीं।
और फिर आए डॉ. सर सय्यद के फ़लसफी हमसफ़र — अल्लामा इक़बाल, जिनकी शायरी में ख़ुदी की रोशनी और इंकलाब की गूँज है।
"ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले..."
5. लखनऊ और फ़ैज़: ज़ुल्म के ख़िलाफ़ मोहब्बत की ज़ुबान
जिगर मुरादाबादी, फ़िराक़ गोरखपुरी, और नज़ीर अकबराबादी जैसे शायरों ने लखनऊ स्कूल की नफ़ासत और सादगी को नया रंग दिया। फिर दौर आया फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का — जिनकी नज़्में नर्म लहजे में सख़्त हक़ीक़तों की तर्जुमानी करती रहीं:
"हम देखेंगे, लाज़िम है कि हम भी देखेंगे..."
6. उर्दू शायरी और फ़िल्मी दुनिया
जब उर्दू शायरी सिनेमा की जुबां बनी, तो शायरी जनमानस की आवाज़ बन गई। साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, शकील बदायूंनी, कैफ़ी आज़मी, और निदा फ़ाज़ली जैसे शायरों ने नज़्म और ग़ज़ल को साउंडट्रैक की तरह हर दिल में बजा दिया।
"मेरे दिल में आज क्या है, तू कहे तो मैं बता दूँ..."
7. जदीद दौर: राहत, जावेद और गली मोहल्लों की गूंज
आज का दौर भी उर्दू शायरी से ख़ाली नहीं। राहत इंदौरी ने अपने अंदाज़ में जब कहा:
"सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में, किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है..."
तो शायरी फिर से जलाल और इंकलाब की ज़ुबान बन गई। जावेद अख़्तर, गुलज़ार, वसीम बरेलवी, बशीर बद्र, और मुनव्वर राना जैसे शायरों ने रिश्तों, दर्द, और रोज़मर्रा की उलझनों को बेहद शाइस्तगी से बयाँ किया।
8. डिजिटल दौर और सोशल मीडिया की शायरी
आज उर्दू शायरी इंस्टाग्राम, यूट्यूब और ट्विटर पर नज़्मों और शेरों के रूप में फिर से जवां हो गई है। युवा शायर जैसे अल्तमश जावेद, डॉ. कुणाल सिद्दीकी, आशिफ़ गोरखपुरी और ख़ालिद जावेद आज भी शायरी को नया चेहरा दे रहे हैं।
9. उर्दू: जो मिटती नहीं
उर्दू शायरी ने ना सिर्फ़ इश्क़ को बयाँ किया बल्कि मज़हब, मज़लूमियत, हक़ और इंसानियत की सबसे खूबसूरत तर्जुमानी की। यह ज़बान मिटने वाली नहीं है। ये किताबों में ही नहीं, दिलों में रहती है। इसकी महफ़िल कभी सूनी नहीं होती।
नतीजा: उर्दू शायरी एक ज़िंदा तहज़ीब
उर्दू शायरी कोई गुज़रे ज़माने की चीज़ नहीं, बल्कि एक ज़िंदा, धड़कती हुई तहज़ीब है। ये शायरी हमें बताती है कि जज़्बात कभी पुराने नहीं होते। मीर से लेकर राहत तक, हर शायर ने अपने दौर के हालात को, अपने दिल के दर्द को और अवाम की आवाज़ को लफ़्ज़ों में ढाल दिया।