लेखिका: कविता शर्मा, रोहिणी (दिल्ली)
मैं नास्तिक हूँ। मैं ईश्वर में विश्वास नहीं रखती। लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं कि मैं समाज से कटी हुई हूँ या मेरी कोई सामाजिक ज़िम्मेदारी नहीं है। दरअसल, मेरा नास्तिक होना मेरी चेतना और मानवता की खोज का परिणाम है — और इसी प्रक्रिया में मैंने जाना कि समाज में प्रेम, समानता और न्याय की कितनी आवश्यकता है।
मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से कानून (LLB) की पढ़ाई की है और इस समय समाजकार्य (MSW) में स्नातकोत्तर कर रही हूँ। इस अध्ययन के दौरान जब मैंने भारतीय समाज की परतों को गहराई से पढ़ा, समझा और अनुभव किया, तो मेरी सोच, मेरी दृष्टि और मेरी आत्मा — तीनों में ज़बरदस्त परिवर्तन आया।
नास्तिकता एक विरोध नहीं, एक प्रस्ताव है
मैं ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानती, लेकिन मैं मानती हूँ:
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कि इंसान की सेवा सबसे बड़ा धर्म है,
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कि बुद्धि, करुणा और विवेक ही मेरे लिए पूज्य हैं,
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और कि हर व्यक्ति को अपने विश्वास या अविश्वास की स्वतंत्रता होनी चाहिए।
नास्तिकता का अर्थ अमर्यादा नहीं होता
बहुत लोग मानते हैं कि नास्तिक होना यानी अनुशासनहीन, उच्छृंखल या परंपराओं का विरोधी होना — लेकिन यह एक बहुत बड़ा भ्रम है। नास्तिकता, दरअसल, एक तार्किक समझ, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और नैतिक जवाबदेही की राह है। मेरा उद्देश्य किसी की आस्था को ठेस पहुँचाना नहीं, बल्कि यह बताना है कि:
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नैतिकता का स्रोत सिर्फ़ धर्म नहीं होता — विवेक, अनुभव और मानवीय मूल्यों से भी नैतिक निर्णय लिए जा सकते हैं।
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एक नास्तिक भी उतना ही करुणाशील, विनम्र और सेवाभावी हो सकता है, जितना कोई धार्मिक व्यक्ति।
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पूजा न करने का अर्थ यह नहीं कि मैं अनुशासन या संयम को नहीं मानती — मेरी नास्तिकता मेरी आत्म-अनुशासन का ही परिणाम है।
बचपन में बोई गई नफ़रत की फसल
मैं एक आम हिंदू परिवार में पली-बढ़ी जहाँ यह सिखाया गया कि मुस्लिम, ईसाई, सिख और अनुसूचित जातियाँ "हम जैसे नहीं हैं"। यह बताया गया कि उनसे दूरी बनाए रखना ही हमारी संस्कृति की रक्षा है। 24 वर्षों तक मुझे यही बताया गया कि कौन अपना है, कौन पराया, किससे प्रेम करना है और किससे घृणा। लेकिन जैसे ही मैंने समाज को गहराई से पढ़ना शुरू किया, मुझे समझ में आया कि यह शिक्षा नहीं थी — यह एक प्रकार की मानसिक गुलामी थी, जो इंसान को बाँटती है और विवेक को कुचलती है।
आज मैं यह खुलकर कहती हूँ कि धर्म अब एक मानसिक जेल बन चुका है। यह इंसानियत को रोकता है, सोचने की क्षमता को कुंद करता है और दया की जगह नफ़रत का बीज बोता है।
नास्तिक होते हुए भी रिश्तों से प्रेम
मैं अब ईश्वर या देवी-देवताओं में विश्वास नहीं करती। फिर भी जब मेरे माता-पिता पूजा करते हैं, तो मैं भी उनके साथ खड़ी हो जाती हूँ — सिर्फ़ उनके सम्मान में। वे जानते हैं कि मैं नास्तिक हूँ, फिर भी मैं उनसे गहरा प्रेम करती हूँ। यही मेरा भारतीय संस्कार है — जो आस्था से नहीं, आत्मीयता से जुड़ा है।
हिंदू होते हुए, हिंदुओं से एक अपील
आज भारत में जो कुछ घट रहा है, उसने मुझे — एक हिंदू, एक महिला, एक नागरिक और एक छात्रा के रूप में — अपनी ही बिरादरी से कुछ कहने के लिए मजबूर कर दिया है।
धार्मिक प्रतीकों का राजनैतिक दुरुपयोग
आज एक चिंताजनक बात यह है कि धार्मिक प्रतीकों को राजनीतिक हथियारों की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। उदाहरण के लिए:
भगवा रंग, जो कभी त्याग और ज्ञान का प्रतीक था, अब डर और घृणा से जुड़ने लगा है।
जय श्रीराम, जो पहले श्रद्धा का उद्घोष था, अब डराने-धमकाने का औजार बन गया है।
मुसलमान टोपी या दाढ़ी, जो पहले एक पहचान थी, अब अजीब की दृष्टि से देखी जाती है।
यह ट्रांसफॉर्मेशन केवल बाहरी नहीं है — यह हमारे बच्चों की मानसिकता में भी उतर रहा है, और यह बहुत ख़तरनाक है।
मैं अपने हिंदू भाइयों और बहनों से निवेदन करती हूँ — किसी से जबरन "जय श्रीराम" बुलवाना, अकेले जा रहे किसी व्यक्ति को घेरकर मारना, मस्जिदों के बाहर हथियार लेकर नाचना, चर्चों पर हमला करना, सब्ज़ी बेचने वालों को नाम पूछकर भगाना — ये सारे कृत्य कहीं से भी धर्म या संस्कृति की सेवा नहीं हैं। ये घृणा के वे बीज हैं जो आज नहीं तो कल समाज को भीतर से खोखला कर देंगे।
आज सोशल मीडिया के ज़रिए ये सब वीडियो दुनिया भर में फैल चुके हैं। भारत के हिंदू समाज की यह कट्टर और आक्रामक छवि अब अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टों, मानवाधिकार संगठनों और विदेश मंत्रालयों के एजेंडों में दर्ज हो चुकी है।
सोशल मीडिया पर धार्मिक उन्माद का मनोविज्ञान
धार्मिक कट्टरता अब सिर्फ़ गलियों और मैदानों तक सीमित नहीं — वह अब हमारे फ़ोन की स्क्रीन पर घुस चुकी है। इसके मनोवैज्ञानिक पहलू को समझिए:
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Confirmation Bias: लोग उन्हीं बातों को सच मानते हैं जो उनकी पहले से बनी राय को मज़बूत करती हैं। नफ़रत फैलाने वाले वीडियो इस मनोवृत्ति का लाभ उठाते हैं।
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Echo Chamber Effect: सोशल मीडिया हमें उन्हीं विचारों से घेर देता है जो हमारे जैसे होते हैं — इससे दूसरों को समझने की क्षमता घट जाती है।
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Moral Disengagement: जब नफ़रत को "धर्म की रक्षा" या "देशभक्ति" के नाम पर परोसा जाए, तो आम लोग भी हिंसा को जायज़ मानने लगते हैं।
इसलिए डिजिटल स्पेस में सबसे ज़रूरी युद्ध सच और विवेक के लिए है — और यह युद्ध हमें आज लड़ना है।
वैश्विक स्तर पर भारत की छवि को नुकसान
आपको शायद इस बात का अंदाज़ा न हो, लेकिन इन गतिविधियों के कारण भारत की वैश्विक साख गिर रही है। भारत:
* अंतरराष्ट्रीय इंडेक्स में लगातार पिछड़ रहा है,
* विदेशी निवेशक भारतीय बाज़ार से पीछे हट रहे हैं,
* भारत का निर्यात गिर रहा है,
* अंतरराष्ट्रीय नौकरियों में भारतीयों की छवि प्रभावित हो रही है,
* पासपोर्ट की रैंकिंग नीचे जा रही है।
दुनिया हमें अब एक लोकतांत्रिक राष्ट्र नहीं, बल्कि एक कट्टरपंथी और विभाजित समाज के रूप में देखने लगी है। यही वह बिंदु है, जहाँ यह घृणा आत्मघाती बन जाती है।
राजनीति की चुप्पी और समाज की ज़िम्मेदारी
मैं किसी राजनीतिक दल की समर्थक या विरोधी नहीं हूँ। लेकिन पिछले 10 वर्षों में जो कुछ भी हुआ, उसने एक बात तो साफ़ कर दी है — समाज को बाँटना अब एक रणनीति बन चुकी है। और जब राजनीति समाज को बाटे, तब समाजशास्त्र पढ़ने वालों का कर्तव्य है कि वे सामने आकर चेतावनी दें कि यह आग हम सबको जला सकती है।
मैंने यही किया है — न अनुभव से, न अध्ययन से, बल्कि इंसान होने के दायित्व से प्रेरित होकर।
अब आपको क्या करना है?
अब सवाल यह नहीं है कि दोष किसका है — सवाल यह है कि हम अपने स्तर पर क्या सुधार ला सकते हैं। इसलिए आज से ही कुछ छोटे लेकिन प्रभावशाली कदम उठाइए:
1. **अपने बच्चों को प्रेम करना सिखाइए, न कि नफ़रत।** उन्हें समझाइए कि हर व्यक्ति पहले एक इंसान है, फिर किसी धर्म, जाति या समुदाय से जुड़ा हुआ।
2. **नफ़रत फैलाने वाली किसी भी गतिविधि से बाहर आइए।** व्हाट्सएप, फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया से उन ग्रुप्स, पेजेज़ और चैनलों को तुरंत छोड़िए या अनफॉलो कीजिए जो धार्मिक घृणा को बढ़ावा देते हैं।
3. **अपनी प्रोफ़ाइल को मानवतावादी बनाइए।** अगर आपके पास सभी धर्मों, जातियों और समुदायों के लोगों के साथ प्रेम से खिंचवाई गई तस्वीरें हैं, तो उन्हें शेयर कीजिए। यह आपकी सोच को दर्शाएगा — और प्रेरणा देगा।
4. **धार्मिक आयोजनों में संयम और मर्यादा रखिए।** डीजे की ध्वनि सीमित हो, भड़काऊ नारे या उत्तेजक गाने न बजें — इसके लिए पहल कीजिए। इससे समाज में सौहार्द और शांति बनी रहेगी।
5. **बच्चों को तकनीकी शिक्षा दीजिए।** कंप्यूटर साइंस, कोडिंग, एआई, साइबर सुरक्षा, भाषा और तर्क पर आधारित शिक्षा से उन्हें जोड़िए। उन्हें एक वैश्विक नागरिक बनाइए, न कि किसी धर्म की दीवार में कैद सीमित सोच वाला प्राणी।
कुछ और ज़िम्मेदार नागरिक कदम
इन अतिरिक्त प्रयासों को भी अपने जीवन का हिस्सा बनाइए:
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स्थानीय स्तर पर संवाद की पहल करें – अपने मोहल्ले, कॉलोनी या यूनिवर्सिटी में विभिन्न धर्मों और जातियों के लोगों के साथ खुलकर बातचीत कीजिए। डर, नफ़रत और भ्रांतियाँ दूर हो सकती हैं सिर्फ़ एक ईमानदार संवाद से।
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हर धार्मिक हिंसा के खिलाफ़ खड़े हों, भले ही वह आपके धर्म के नाम पर हो। चुप रहना भी अपराध की मौन स्वीकृति है।
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तथ्य आधारित सोच को अपनाइए। किसी भी वीडियो, पोस्ट या बयान को आँख मूँदकर न मानिए — पहले जाँचिए, फिर प्रतिक्रिया दीजिए।
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सांप्रदायिक राजनीति करने वालों से सवाल पूछिए। धर्म की बात करने वाले नेताओं से पूछिए कि उनके क्षेत्र में स्कूल, अस्पताल और रोज़गार की क्या स्थिति है?
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महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाइए। याद रखिए कि जो समाज अपने सबसे कमज़ोर तबकों के साथ न्याय नहीं कर सकता, वह कभी सभ्य नहीं बन सकता।
अंत में
क्या ऐसा भारत असंभव है? — अगर हम आज ही से प्रेम, सहिष्णुता और विवेक की राह चुनें।
याद रखिए — नफ़रत से न समाज बनता है, न राष्ट्र मजबूत होता है। प्रेम, सह-अस्तित्व, संवाद और शिक्षा ही वह नींव हैं, जिन पर एक सुंदर, शक्तिशाली और *वसुधैव कुटुम्बकम्* आधारित भारत खड़ा हो सकता है।
आप सहमत हों या असहमत, पर इतना ज़रूर कीजिए कि इसे सोचें — क्योंकि यही सोच हमारे भविष्य की दिशा तय करेगी।
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कविता एक जागरूक, प्रबुद्ध और संवेदनशील लेखिका हैं, जो सामाजिक मुद्दों को गहराई से समझती हैं और उन पर निष्पक्ष दृष्टिकोण रखती हैं। Morningdilli.comउनकी इस वैचारिक प्रस्तुति को न केवल साझा कर रहा है, बल्कि सभी पाठकों से आग्रह करता है कि वे इन विचारों को समाज में आगे पहुँचाएँ और इस संवाद को व्यापक बनाएं।
सादर — संपादकीय टीम, Morningdilli.com