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हाशिमपुरा नरसंहार: एक न्याय के लिए तीन दशक लंबा इंतजार और सरकार प्रायोजित जनसंहार का इतिहास

 नई दिल्ली/मेरठ, 22 मई – भारत के स्वतंत्र लोकतांत्रिक इतिहास में हाशिमपुरा नरसंहार एक ऐसा काला अध्याय है, जिसे भुला पाना संभव नहीं। यह घटना 22 मई 1987 को उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर के हाशिमपुरा मोहल्ले में घटी थी, जब दंगा नियंत्रण के नाम पर 19वीं बटालियन के पीएसी जवानों ने भारी दमन किया और 42 मुस्लिम युवाओं की हत्या कर दी।

Symbolic Image 


घटना की शुरुआत और पीएसी की भूमिका

1987 में देश भर में सांप्रदायिक तनाव अपने चरम पर था। अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ताले खोलने के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के निर्णय के बाद देश के कई हिस्सों में दंगे भड़क उठे। मेरठ भी उन शहरों में एक था जहां हालात बेकाबू हो गए। दंगा नियंत्रण के लिए पीएसी (प्रोविंशियल आर्म्ड कांस्टेबुलरी) को बुलाया गया।

22 मई की शाम पीएसी की 19वीं बटालियन के जवान प्लाटून कमांडर सुरेंद्र पाल सिंह के नेतृत्व में हाशिमपुरा में दाखिल हुए। घर-घर तलाशी के बहाने लगभग 40 से 50 मुस्लिम युवकों को पकड़ कर एक ट्रक में भर लिया गया। देर रात उन्हें मेरठ से बाहर ले जाया गया। फिर बारी-बारी से उन्हें गोली मारकर कुछ की लाशें मुरादनगर की गंगनहर में और कुछ की हिंडन नदी में फेंक दी गईं।

42 की हत्या, 5 जीवित बचे

इस घटना में 42 निर्दोष मुस्लिम युवक मारे गए, जबकि पांच युवक गोली लगने के बावजूद किसी तरह बच गए और बाद में इस मामले के मुख्य गवाह बने। यह पूरी घटना कथित तौर पर राज्य प्रायोजित दमन का हिस्सा मानी गई, जिसके पीछे तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व की भूमिका पर भी सवाल उठे।

राजनीतिक संदर्भ और आरोप

इस घटना के समय उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के वीर बहादुर सिंह मुख्यमंत्री थे और केंद्र में प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार थी। कई नेताओं और मानवाधिकार संगठनों ने आरोप लगाया कि यह हिंसा एक पूर्व नियोजित साजिश थी। तत्कालीन गृह राज्य मंत्री पी चिदंबरम पर आरोप लगे कि उन्होंने मुस्लिम समुदाय को सबक सिखाने की नीति अपनाई, जैसा 1984 में सिखों के साथ हुआ था।

न्याय की लंबी लड़ाई और देरी

यह मामला धीरे-धीरे अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार मंचों पर भी उठा, लेकिन भारत में न्याय की प्रक्रिया बेहद धीमी रही। 1991 में यह मामला राष्ट्रीय बहस का विषय बना। 1996 में पहली चार्जशीट दाखिल हुई और 2006 में पहली बार चश्मदीदों की गवाही शुरू हुई। 28 वर्षों तक यह केस विभिन्न अदालतों में खिंचता रहा।

2015: अभियुक्त बरी, सरकार की विफलता

2015 में तीस हजारी कोर्ट ने यह कहते हुए सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया कि अभियोजन पक्ष ठोस सबूत नहीं दे सका। यह फैसला पीड़ित परिवारों के लिए दूसरा बड़ा आघात था। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और वकीलों ने इस निर्णय को राज्य की जांच एजेंसियों की विफलता बताया। घटना के वर्षों बाद तक राज्य सरकार ने मुआवजे के रूप में मात्र बीस हजार रुपये की राशि तय की थी, जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर दोगुना किया गया।

31 साल बाद आया उच्च न्यायालय का फैसला

अंततः 31 अक्टूबर 2018 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया। अदालत ने 16 पीएसी कर्मियों को दोषी करार देते हुए उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई। यह फैसला न सिर्फ मृतकों के परिवारों के लिए एक आंशिक न्याय था, बल्कि भारतीय न्याय व्यवस्था की विफलताओं की भी याद दिलाता है।

न्याय की राह में रहे साक्षी और अधिवक्ता

इस केस को अंजाम तक पहुंचाने में दो बहादुर महिला अधिवक्ताओं वृंदा ग्रोवर और रेबेका ममेन जॉन की भूमिका उल्लेखनीय रही। साथ ही, केस के गवाह रणदीप सिंह बिश्नोई और पत्रकार प्रवीण जैन द्वारा खींची गईं तस्वीरें इस मामले में निर्णायक सबूत साबित हुईं। न्याय की इस लंबी लड़ाई में धर्म और जाति की सीमाएं टूटती दिखीं, जहां मुस्लिमों को न्याय दिलाने में एक सिख गवाह, एक पंजाबी और ईसाई वकील, और एक जैन पत्रकार की भूमिका रही।

समाज के लिए सवाल और सबक

यह नरसंहार इस बात की चेतावनी है कि जब सरकारें कानून को हथियार बनाकर नागरिकों के खिलाफ खड़ी हो जाती हैं, तब लोकतंत्र की आत्मा घायल होती है। इस घटना ने भारत में सांप्रदायिक न्याय, पुलिस सुधार और राज्य की जवाबदेही की बहस को गहराई दी है।

निष्कर्ष:-

हाशिमपुरा नरसंहार भारत के न्यायिक और संवैधानिक ढांचे के लिए एक कठिन परीक्षा थी। इसने यह स्पष्ट किया कि जब तक नागरिक समाज, मीडिया, वकील और सच्चे गवाह एकजुट होकर खड़े नहीं होते, तब तक न्याय एक लंबी प्रतीक्षा ही बना रहता है। लेकिन अंततः जब सत्य और न्याय की पुकार बुलंद होती है, तो सत्ता, वर्दी और बंदूकें भी झुकने को मजबूर होती हैं।

आज भी जो लोग सत्ता की छांव में या गुलामी की मानसिकता में रहकर अपराध कर रहे हैं, उन्हें यह बात गांठ बांध लेनी चाहिए कि इंसाफ को भले ही देर लगे, लेकिन इंसाफ होता जरूर है। हाशिमपुरा जैसे मामलों ने यह सिद्ध कर दिया है कि सच्चाई को दबाया जा सकता है, मिटाया नहीं जा सकता।

यह घटना आज भी हमें याद दिलाती है कि लोकतंत्र की सच्ची आत्मा न्याय में ही निहित है, और हर नागरिक की सुरक्षा, गरिमा और अधिकारों की रक्षा करना राज्य की पहली और सर्वोच्च जिम्मेदारी होनी चाहिए।

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