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न्यायपालिका बनाम सत्ता: जब लोकतंत्र की आत्मा पर सवाल उठे

न्यायपालिका बनाम सत्ता: जब लोकतंत्र की आत्मा पर सवाल उठे

लेखक: (वरिष्ठ पत्रकार)

भारत में लोकतंत्र की बुनियाद तीन स्तंभों — विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका — पर टिकी है। इनमें से न्यायपालिका को संविधान का रक्षक और नागरिकों की अंतिम आशा कहा जाता है। हाल के दिनों में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और सर्वोच्च न्यायालय के बीच जो वैचारिक टकराव उभरा है, उसने न केवल संवैधानिक मर्यादाओं पर बहस छेड़ दी है, बल्कि देश में संस्थाओं की स्वायत्तता को लेकर भी गंभीर चिंताएं खड़ी कर दी हैं।

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धनखड़ का बयान — क्या यह न्यायपालिका की गरिमा पर हमला है?

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने हाल ही में कहा कि ‘CJI राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकते और जज संसद का काम नहीं कर सकते।’ यह वक्तव्य न केवल अनावश्यक था, बल्कि संवैधानिक व्यवस्था की बुनियादी समझ पर भी सवाल खड़ा करता है।
सर्वोच्च न्यायालय कभी भी विधायिका का कार्य नहीं करता, बल्कि उसके बनाए कानूनों की संवैधानिक वैधता की समीक्षा करना उसका दायित्व है।

धनखड़ का यह बयान उस संदर्भ में आया जब सुप्रीम कोर्ट ने वक्फ एक्ट संशोधन और राष्ट्रपति की शक्तियों को लेकर टिप्पणी की थी कि ‘राष्ट्रपति को हर निर्णय मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही नहीं, बल्कि व्यापक जनहित और संवैधानिक मूल्यों के आधार पर देखना चाहिए।’

धनखड़ का इस पर सार्वजनिक प्रतिक्रिया देना, और न्यायपालिका पर ‘सुपर संसद’ बनने का आरोप लगाना, भारत की लोकतांत्रिक परंपरा और संस्थागत गरिमा के प्रतिकूल है।


CJI संजीव खन्ना की भूमिका — संविधान का सजग प्रहरी

सुप्रीम कोर्ट और विशेषकर CJI संजीव खन्ना इस समय जिस विवेक और गरिमा के साथ संवैधानिक प्रश्नों को संभाल रहे हैं, वह प्रशंसनीय है।
धमकियों, दबावों और सियासी हमलों के बीच CJI खन्ना का संतुलित, निर्भीक और संविधानसम्मत रुख यह दिखाता है कि न्यायपालिका देश में कानून के राज की अंतिम गारंटी है।

CJI और अन्य जजों को मिल रही सोशल मीडिया और राजनीतिक दबाव वाली धमकियों के बावजूद सर्वोच्च न्यायालय का डटकर खड़ा रहना यह सिद्ध करता है कि भारतीय न्यायपालिका अभी भी स्वतंत्र और निर्भीक है।

यदि आम नागरिक या कोई विपक्षी दल ऐसी बात करता तो उसे तुरंत देशद्रोह या अवमानना के आरोप में जेल में डाल दिया जाता। लेकिन जब सत्ता के उच्चतम पदों से न्यायपालिका पर छींटाकशी होती है, तो यह लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए कहीं अधिक खतरनाक होता है।


संवैधानिक संतुलन की दरकार

यह भूलना नहीं चाहिए कि भारत का संविधान न तो राष्ट्रपति को निरंकुश बनाता है, न संसद को सर्वोच्च। संविधान सर्वोच्च है।
और संविधान की अंतिम व्याख्या का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के पास है।
यह व्यवस्था केवल अधिकार नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक संतुलन का प्रतीक है। अगर कोई सरकार या पदाधिकारी अपनी संवैधानिक सीमा लांघने लगे तो न्यायपालिका ही उस पर लगाम लगाने का संवैधानिक अधिकार रखती है।

CJI खन्ना और उनकी बेंच ने वक्फ एक्ट हो या व्यक्तिगत स्वतंत्रता, बार-बार यह सिद्ध किया है कि न्यायपालिका केवल संविधान की बात करती है, सत्ता की नहीं।


धमकियों पर सख़्त कार्रवाई हो

जो लोग CJI या किसी जज को धमकाने की कोशिश कर रहे हैं, वे लोकतंत्र और संविधान दोनों के दुश्मन हैं। सरकार को बिना भेदभाव के ऐसे तत्वों पर सख़्त कार्रवाई करनी चाहिए।
लोकतंत्र में आलोचना का अधिकार सभी को है, लेकिन संवैधानिक संस्थाओं को धमकाना देश की व्यवस्था पर सीधा हमला है।


निष्कर्ष: न्यायपालिका की रक्षा देश की रक्षा

भारत की न्यायपालिका को न केवल धमकियों से, बल्कि संवैधानिक अनादर और राजनीतिक दबावों से भी मुक्त रखना देश के लोकतंत्र के लिए अनिवार्य है।
CJI संजीव खन्ना और सुप्रीम कोर्ट ने जो साहसिक रुख अपनाया है, वह हर जागरूक नागरिक के लिए गौरव और विश्वास का विषय है।

सत्ता को समझना होगा — लोकतंत्र में संस्थाओं की स्वायत्तता ही उसकी असली ताकत है। न्यायपालिका अगर डरी या दबाई गई, तो लोकतंत्र एक दिखावा बनकर रह जाएगा।

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